हम सभी लोगों , विशेषतः साधकों को सबसे बड़ी समस्या है मन !! मन की सामर्थ्य से सब परिचित है। गीता में भी कहा गया है कि मन वायु से भी अधिक चंचल है जिसका नियंत्रण एक अत्यंत दुष्कर कार्य है और आध्यात्मिक उन्नति के लिए इस मन का नियमन करना एक आवश्यक अंग ! अब प्रश्न यह उठता है कि जो मन इतना चंचल है उसको स्थिर किस प्रकार से किया जा सकता है ?
मन को नियंत्रित करने के लिए पहले हमको उसकी कार्यशैली को समझना होगा। भागवत गीता ,
यम- गीता अथवा अन्य किसी भी वैदिक ग्रन्थ के अनुसार यह शरीर रथ है, इंद्रियाँ इसके घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी और आत्मा रथी। इसका अर्थ यह हुआ की आत्मा मुख्य है। आत्मा है तभी सबको (मन , इन्द्रियां , बुद्धि ) शक्ति प्राप्त होती है। आत्मा शुद्ध चैतन्य का अंश होने के कारण अविनाशी, अविकारी और मुक्त है। फिर क्या कारण है कि आत्मा बंधन में है ?
इसका कारण यह है कि आत्मा , मन के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है । मन का संबंध बाह्य जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है । यह इन्द्रियाँ दो प्रकार की होती है - ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ। ज्ञानेंद्रियां पांच होती है - आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा। कर्मेद्रियां भी पांच होती है - हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ यानी जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि।
मन दो चीजों से प्रभावित होता है , बुद्धि और इन्द्रिय। इंद्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम है और बुद्धि सारथी, इस कथन से यह स्पष्ट है कि इन्द्रियों के द्वारा मन संचालित अवश्य होता है किन्तु बुद्धि चाहे तो मन की नकेल को खींचकर इन्द्रियों को नियंत्रित कर सकती है। यदि बुद्धि रुपी सारथि अविवेकी हो तो मन रूपी लगाम ढीली हो जाती है, जिससे इन्द्रियाँ संसार की ओर दौड़ने लगती है। क्योकि इन्द्रियों का सहज स्वभाव है वाह्य मुखी होना अर्थात संसार के प्रति आकर्षित हो जाना। अनियंत्रित इन्द्रियाँ, बुद्धि को दूषित कर देती है और मन के ऊपर से बुद्धि की पकड़ शिथिल हो जाती है। मन पर बुद्धि का नियंत्रण नहीं होने से वह उच्छ्रंखल हो , ज्ञान इन्द्रियों को संसार के विषयों की ओर दौड़ाता रहता है और इसके लिए कर्मेन्द्रियों अर्थात शरीर के द्वारा विभिन्न कर्म करवाता रहता है । इस प्रकार यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और आत्मा मन से जुड़े होने के कारण कर्मों के बंधन में बंध जाती है । इन्द्रियों से प्रभावित और बुद्धि से अनियंत्रित होने के कारण मन हमेशा गतिमान स्थिति में रहता है। इस गतिमान स्थिति को ही मन का चंचल होना कहते है।
विचार (स्मृति, कल्पना ), भावना तथा संकल्प की शक्ति मन के गुण है। जब मन अस्थिर होता है तो यह तीनों गुण विकृत हो जाते है। विचारों की गुणवत्ता कम हो जाती है , व्यर्थ की बातें मन को शीघ्र प्रभावित कर देती है , छोटी छोटी बातें अधिक भावुक बना देती है और इन सब बातों के कारण विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता , धैर्य इत्यादि सद्गुण अशक्त होने लगते है फलस्वरूप मन में अशांति और दुःख का अनुभव सभी साधनों के होते हुए भी बना रहता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि मन को संयमित कैसे किया जाये। इसका रहस्य भी इसी वाक्य में छुपा हुआ है - शरीर रथ है, इंद्रियाँ इसके घोड़े हैं, मन लगाम है, बुद्धि सारथी और आत्मा रथी। मन को नियंत्रित करने के लिए शरीर/ इन्द्रिय और बुद्धि से कार्य आरम्भ किया जाता है। अष्टांग योग यानी यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार, के माध्यम से इंद्रिय विषयों से मुक्त होने का प्रयास करते है। यम का अर्थ है संयम। तप, तीर्थ, व्रत तथा दान इन्द्रियों को सुव्यवस्थित करने में सहायक होते है। मन को जब थोड़ी स्थिरता प्राप्त होती है तो बुद्धि की क्षमता बढ़ती है। बुद्धि की सामर्थ्य वृद्धि होने से अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य ,और अपरिग्रह की ओर आकर्षण होने लगता है। शौच (तन व मन की शुद्धि करना), संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान जैसे नियम मन और बुद्धि के विकास में अत्यंत सहायक होते है । आसन अर्थात बिना हिले-डुले सुख से बैठने पर ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को स्थिरता प्राप्त होती है जिसके फलस्वरूप मन को स्थिर होना ही पड़ता है। मन वायु के साथ बंधा हुआ होता है और श्वासों के द्वारा वायु का आवागमन होता है। इसलिए प्राणायाम अर्थात श्वासों के द्वारा मन को साधा जा सकता है।
जब हम प्राणायाम तक की प्रक्रिया अच्छी तरह से कर लेते है तो मन की संसार की ओर दौड़ने की प्रवृत्ति कम हो जाती है और वह अंतर्मुखी होने के लिए तैयार हो जाता है। पांच ज्ञानेन्द्रियों के जो पांच विषय है उनका संयम। आंख का विषय है - दृश्य , कान का है - श्रवण , नाक का विषय है गंध , जिह्वा का विषय है स्वाद तथा त्वचा का विषय है स्पर्श। जब हम इन विषयों को सीमित कर शुद्ध विषयों पर केंद्रित करते है तो मन को अंतर्मुखी होने में सहायता प्राप्त होती है। यही प्रत्याहार है . मन जब व्यर्थ के विषयों से हटता है तो उसकी एक विचार पर स्थिर रहने की शक्ति बढ़ती है। यही स्थिति धारणा कहलाती है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप बुद्धि में सही और गलत को पहचानने की क्षमता आ जाती है। विवेक का विकास होता है और धैर्य क्षमा जैसे गुण विकसित होने लगते है। सद्गुणों के विकास के साथ साथ शुद्ध बुद्धि बलवान होती जाती है फलस्वरूप इन्द्रियाँ और मन क्रमशः शांत होते जाते है। जैसे जैसे मन शांत होता जाता है, आत्मा की शक्ति का अनुभव शांति के रूप में होने लगता है, ईश्वर के प्रति विश्वास और भक्ति का संचार मन में होने लगता है ।
मन इतना बहुआयामी होता है कि उसको संतुलित करने के लिए विभिन्न साधनों की आवश्यकता समय समय पर पड़ती रहती है। विभिन्न साधनो के उपयोग के उपरान्त भी मन की स्थिरता शीघ्र नहीं होती , वरन उसमे बहुत समय लगता है। यह समय संस्कारों और कर्मों की प्रबलता के अनुसार निर्धारित होता है। मन का नियंत्रण दुष्कार कार्य अवश्य है किन्तु असंभव नहीं। आरम्भ चाहे ज्ञान अर्थात बुद्धि से किया जाये अथवा कर्म (शरीर / इन्द्रिय ) के द्वारा , मन के नियमन के लिए दोनों साधन अनिवार्य है। दोनों साधन एक दूसरे पर निर्भर है। गुरु कर्मों के आधार पर निर्धारित करता है कि किस मार्ग से आरम्भ करवाना है। जब गुरु के दिशा निर्देशन में यम नियमों इत्यादि का दृढ़ता से पालन करते है तो यही मन विकारों से मुक्त होकर ईश्वर प्राप्ति का उत्तम साधन बन जाता है।