हमारी प्रार्थना क्यों नहीं सुनी जाती है
हम सभी किसी ना किसी रूप में इश्वर पर विश्वास करते और नित्य पूजा प्रार्थना इत्यादि भी करते है। किन्तु क्या कारण है कि हमारी प्रार्थना स्वीकार नहीं होती जिसके कारण परिस्थितियों अथवा स्वयं में सकारात्मक परिवर्तन का अनुभव नहीं होता ? सभी वेद पुराण और अन्य धार्मिक ग्रन्थ ईश्वर के कृपालु, असीम , सर्वज्ञ होने और कष्ट हरने में तत्पर होने की बात करते है। फिर वह क्या कारण है कि हमारी इच्छा की पूर्ति जैसे सम्बंद्धों में सुधार नहीं होता , स्वयं की त्रुटियों का ज्ञान नहीं होता और अन्य दुःखों का निवारण प्रार्थना के माध्यम से संभव नहीं हो पाता है ?
सर्व प्रथम उन कारणों पर दृष्टि डालते है जिनका उत्तरदायित्त्व प्रार्थी पर होता है। प्रार्थी की निम्नलिखित कमियों के कारण प्रार्थना अपूर्ण रह जाती है -
* भगवान् में पूर्णतः विश्वास का ना होना - यद्यपि हमारा भगवान पर विश्वास तो होता है किन्तु वह विश्वास सम्पूर्ण नहीं होता है। प्रार्थना के अनुत्तरित होने का यही सबसे प्रमुख कारण है। विश्वास नहीं होने के कारण हमारे मन में अपनी योजनाएं बन रही होती है। योजनाये बनाने का कारण यह होता है कि हम अपने सामर्थ्य और बुद्धि पर अधिक भरोसा करते है।
* द्रढ़ता की कमी होना - परिस्थितियों के परिवर्तित होने पर हमारा दृष्टिकोण भी परिवर्तित हो जाता है और हमारी प्रार्थना का उद्देश्य भी। दूसरा कारण है प्रार्थना को नियम पूर्वक ना करना।
* प्रार्थना के पूर्ण होने में समय का अधिक लगना - जब प्रार्थना के पूर्ण होने में अधिक समय लगता है तो मनुष्य उदासीन हो कर प्रार्थना का नियम भंग कर देता है।
* मन का एकाग्र ना होना - प्रार्थना करते समय हमारा ध्यान ईश्वर पर कम और इच्छित फल पर अधिक रहता है। साथ ही हम समस्या के समाधान हेतु समय का निर्धारण भी खुद कर लेते है। समय कहीं बीत ना जाये पूरे समय इसी बात की चिंता बनी रहती है। फल प्राप्ति की शीघ्रता के कारण मन व्यग्र हो जाता है। अधीरता के कारण उद्विग्न मन एकाग्र नहीं हो पाता है। इसके अलावा मन यहाँ वहा लोगो की बातो और अपने दैनिक कार्यों में भी उलझा रहता है जिसके कारण प्रार्थना में मन पुर्णतः सम्मिलित नहीं हो पाता है।
* प्रार्थना करने का कारण उचित नहीं होता है - इस बात को उदाहरण से समझना उचित होगा। कोई विद्यार्थी साल भर परीक्षा की तैयारी ना करे और परीक्षा के समय उत्तीर्ण होने के लिए भगवान की प्रार्थना करे तो उसकी प्रार्थना पूर्ण नहीं होगी . यदि जन्म से किसी का रंग सांवला है और वह गोरे होने के लिए भगवान् की प्रार्थना करे. इन दोनों कारणों में परिस्थितियों की सबलता अधिक होने से प्रार्थना का इनके सुधार के लिए प्रयोग पुर्णतः अव्यवहारिक है।
* भगवान् के साथ संबंद्ध का सतही होना - अधिकांशतः जब हम पूजा या प्रार्थना करते है तो भगवान को स्वयं से दूर मान कर करते है. उदाहरण के लिए जब हम भोग लगाते है तो पता होता है कि यह भोग हमें ही मिलना है और ईश्वर पाषाण की एक प्रतिमा के रूप में रह जाते है. इश्वर के साथ संबंद्ध जब तक अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त न करे , तब तक प्रार्थना का उत्तर भी अपूर्ण ही रहता है।
* न्याय संगत आचरण का पालन ना करना - किसी भी प्रार्थना , यज्ञ अथवा अनुष्ठान की सफलता के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि धर्मयुक्त आचरण का सदैव निर्वहन किया जाये। यदि कोई अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु झूठ और कपट का सहारा लेता है तो उसकी पूजा-प्रार्थना कभी सफल नहीं होती है। इसके साथ ही अन्य नकारात्मक कर्मों जैसे निंदा , चोरी , कलुषित विचार , नकारात्मक सोच और व्यसनों में फंसे रहना जैसे कर्म प्रार्थना की उर्जा को व्यर्थ कर देते है।
* ग्रहणशील ना होना - हमारा मन अपनी ही कल्पना की दुनिया में व्यस्त रहता है जो उसकी सुविधा के अनुसार होती है। बिना यथार्थ को पहचाने वह विचारो, इच्छाओं और अपेक्षाओं की स्वयं ही एक दीवार बना लेता है। इस दीवार के कारण सत्य का प्रकाश हम तक नहीं पहुंच पाता है।
* प्रार्थना एक औपचारिकता - प्रार्थना तभी सफल होती है जब वह शुद्ध ह्रदय और सम्पूर्ण चेतना के साथ की जाये। यदि वह बिना ध्यान दिए की जाती है तो केवल एक शारीरिक प्रक्रिया मात्र बन के रह जाती है। प्रार्थना के साथ मन का जुड़ना अत्यंत आवश्यक है। इश्वर का गहन चिंतन करते हुए जब उपासना की जाती है तो मन राग द्वेष से मुक्त होने लगता है और प्रार्थना फलित होती है।
* अपने कर्मों से दूर भागना - अपने उत्तरदायित्वों के प्रति सजग ना होकर केवल पूजा पाठ पर ही निर्भर रहना और समुचित कर्मों का अभाव इश्वर को स्वीकार्य नहीं होता। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति दुखी है और इस कारण वह पूरे समय अपने दुःख को ही अन्य लोगों को सुनाता रहता है और घर इत्यादि की व्यवस्था में सहयोग ना देकर दुःख के भाव में ही स्थित होकर केवल पूजा-प्रार्थना करता है तो प्रार्थना की शक्ति कम हो जाती है।
महत्त्वपूर्ण ईश्वरीय तथ्य -
* प्रार्थना के पूर्ण होने के लिए तीन बाते प्रमुख है - आध्यात्मिक स्तर , उद्देश्य और कर्मो का बाहुल्य । यही कारण है कि व्यक्ति की भावनात्मक , बौद्धिक और आध्यात्मिक स्तर के अनुसार ही साधना पथ का निर्धारण होता है . गलत मार्ग का चुनाव भी शीघ्र सफलता नहीं देता।
* ईश्वरीय नियमों के प्रति अज्ञानता - जैसे संसार में रहने के लिए एक विशेष व्यवस्था अनिवार्य है उसी प्रकार संसार को सुचारू रूप से चलाने के लिए कुछ विशेष नियम निर्धारित है। जैसे कर्म के फलों का भोग एक अटल सिद्धांत है । इन नियमों के कारण सभी प्राणियों को जाने अथवा अनजाने रूप से अपने कर्म के फलों की प्राप्ति हो कर ही रहती है। अब यदि इन कर्म के फलों में परिवर्तन करना है तो उसके लिए भी विशेष नियम व्यवस्था है , जिसका पालन अनिवार्य है। जैसे विशेष प्रार्थना निर्धारित समय और स्थान पर करना , अपनी त्रुटियों को स्वीकार कर उनको संशोधित करना , हर परिस्थिति में विनम्रशील और सहज रहना , इश्वर पर पूर्ण श्रद्धा रखना और प्रसन्न रहना इत्यादि इत्यादि। किन्तु मनुष्य की सबसे बड़ी कमी यही होती है कि वह ईश्वरीय नियमों को अपनी आवश्यकता अनुसार परिवर्तित कर लेता है। प्रार्थना के असफल होने का यह सबसे मूलभूत कारण है।
* भगवान् हमारी इच्छा पूर्ती में कभी कभी समय अधिक लगाते है जिससे हम अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर सके . हमें अपने सीमित दृष्टिकोण से जिसमे भी लाभ प्रतीत होता है , उसकी प्राप्ति हेतु प्रार्थना करते है. किन्तु भगवान् को सही रूप से लाभ और हानि का पता होता है। यदि किसी एक व्यक्ति की किसी इच्छा पूर्ति से व्यक्ति , समाज और परिवार को नुकसान पहुचने की संभावना रहती है, वह प्रार्थनाएं भी अनुत्तरित रहती है।
* हमारे सकारात्मक कर्मो की गुणात्मक और परिणामात्मक मात्रा इतनी नहीं होती है कि वह पूर्व जन्म के पापकृत कर्मों को निष्प्रभावी कर हमारी इच्छा को पूर्ण कर सके .
* किसी भी पद अथवा वस्तु की प्राप्ति के लिए योग्यता / क्षमता का होना अनिवार्य है। अधिकांशतः लोग अपनी योग्यता को असलियत से अधिक समझते है और अपनी त्रुटियों की अनदेखी करते है। यह अहंकार व्यक्ति को भगवान् से दूर कर देता है। इसके विपरीत कुछ व्यक्ति स्वयं को इतना कमजोर और दुखी बना कर रखते है कि उनका आत्मविश्वास ही डगमगाया रहता है। इस स्थिति में उनको प्रत्येक व्यक्ति और परिस्थिति से कष्ट रहने के कारण इश्वर के प्रति समर्पण सम्पूर्ण नहीं हो पाता है। यह असहजता उन्हें इश्वर से दूर कर देती है।
* ऐसा व्यक्ति जो अपने कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं है , मन और व्यवहार में भिन्नता रखते हुए कर्म करता है ऐसा व्यक्ति कभी भी इश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है। जो मनुष्य लगन के साथ परिश्रम और प्रार्थना दोनों करता है , इश्वर उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर परिश्रम का सुखद फल प्रदान करते है।
* समस्या के कारणों की अनदेखी करना - अधिकांशतः व्यक्ति समस्या के गहन कारणों को ना ही जानने में रूचि रखते है और ना ही इश्वर से तटस्थ होकर सही मार्ग पर चलने की इच्छा रखते है। यदि किसी को समस्या के कारणों की गहराई बता भी दी जाये तो वह उनको भयभीत कर देती है। जबकि समस्या की गहराई जानना इसलिए आवश्यक है , जिससे उस के समाधान में आने वाली बाधाओं, उपायों की तीव्रता एवं आवश्यकताओं के बारे में अनुमान लगाया जा सके। इसके साथ ही समाधान में लगने वाले समय का भी विचार किया जा सके , जिससे धैर्य धारण किया जा सके। यदि समय का अनुमान रहता है तो मन बार बार फल प्राप्ति में होने वाले विलम्ब को ले कर व्यथित नहीं होता है।
* भय लोभ से की गयी प्रार्थना , श्रद्धा और भक्ति के अभाव में की गयी प्रार्थना और बिना गुरु के दिशा निर्देश में की गयी प्रार्थना अपना प्रभाव पूर्णतः नहीं दिखला पाती है।
* यदि कोई व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा , विश्वास , दृढ़ता और एकाग्रता के साथ सही कारण के लिए जप -यग्य तप, प्रार्थना - अनुष्ठान इत्यादि द्वारा इश्वर से संपर्क स्थापित कर ऊर्जा को प्राप्त कर भी ले किन्तु उसका संरक्षण उचित प्रकार से ना करे तो भी उर्जा का क्षय हो जाता है। जैसे किसी की निंदा करना , किसी से लाभ की आशा करना , स्वयं को श्रेष्ठ समझना , व्यवहार में क्रोध की मात्रा का अधिक होना , कटु वचनों का प्रयोग , अपने भाग्य को निरंतर कोसते रहना , असंतुष्ट रहना , परिस्थितियों को स्वीकार ना कर पाना , दूसरों की बातों को सोच सोच कर व्यथित होना , असफलताओं का श्रेय दूसरों को देना और सफलता का श्रेय खुद ले लेना , मद्य इत्यादि का प्रयोग कर अशुभ व्यवहार करना जैसे अनेक कारणों में से कोई एक भी कारण उपस्थित हो तो उर्जा का क्षय कर देते है।
भगवान् हमारी आवश्यकताओं और इच्छाओं के विषय में पूर्ण जानकारी रखते है. वह हमारे चुनाव के अधिकार को स्वतंत्र रखते है . यही कारण है कि वह बिना कहे सहायता के लिए प्रस्तुत नहीं होते है. जो भक्त पूर्णतया इश्वर के प्रति समर्पित होते है और अपनी किसी भी इच्छा हेतु विशेष प्रार्थना नहीं करते है , ऐसे अनन्य भक्तों की सुरक्षा और आवश्यकता को भगवान् बिना कहे ही पूर्ण करते है.