स्वप्न और साधना का सम्बन्ध
मनुष्य की चेतना की निम्नलिखित स्थितियां बताई गयी है - जागृत, स्वप्न , सुषुप्ति एवं तुरीय अवस्था
साधारणतः हम जब नींद से उठ जाते है और प्रतिदिन के कार्यों को सम्पन्नं कर रहे होते है, अर्थात कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ सक्रिय हो जाती है वही हमारे लिए जागृत अवस्था होती है. किन्तु आध्यात्म में जागृत अवस्था का अर्थ है पूरी तरह वर्तमान में रहना. पूरी तरह वर्तमान में रहने का अर्थ है - ना भूत का चिंतन, ना भविष्य की कोई चिंता. जो कार्य वर्तमान में कर रहे है उसको पूरे मनोयोग से प्रसन्नता के साथ करना ही जागृत अवस्था है . जागृत अवस्था में चेतन मन पूर्ण रूप से सक्रिय रहता है.
स्वप्न अवस्था में सूक्ष्म शरीर (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) परम चेतना के साथ संपर्क स्थापित करता है . इस संपर्क के द्वारा जो दिव्य ऊर्जा प्राप्त होती है, वह भौतिक शरीर और सूक्ष्म शरीर को संतुलित करती है. स्वप्न अवस्था में कर्मेन्द्रियां निष्क्रिय हो जाती है किन्तु ज्ञानेन्द्रियाँ कुछ सक्रिय रहती है, जिसके कारण मन गतिशील रहता है. मन की यह गति ही स्वप्न दिखाती है. इस अवस्था में अहम् का बोध जागृत और जागृत-स्वप्न अवस्था से कम होता है.
सुषुप्ति अवस्था में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ दोनों पूर्णतः निष्क्रिय अवस्था में होते है. इसलिए इसमें स्वप्न नहीं आते. यदि इस अवस्था में स्वप्न आते भी है तो वह
उच्च कोटि के आध्यात्मिक स्वप्न होते है जिनका कुछ न कुछ विशेष अर्थ अवश्य होता है . विशेष अर्थ वाले स्वप्न जीवन को एक नयी दिशा देते है.इस अवस्था में अहंकार का अस्तित्व अधिक प्रभावी नहीं होता है किन्तु उसका बोध अवश्य बना रहता है.
तुरीय अवस्था , समाधि की अवस्था है जो कि आत्मा की सर्वश्रेष्ठ स्थिति है . स्वप्न और सुषुप्ति अन्धकार की अवस्था है जबकि तुरीय प्रकाश की क्योंकि यह अहं शून्यता की स्थिति होती है. अहम् समाप्त हो जाने के कारण व्यक्ति परमात्मा में लीन हो जाता है, इस कारण हर अवस्था में स्थितप्रज्ञ रहता है ।
जागृत - स्वप्न अवस्था
जब हमारी इन्द्रियाँ मशीनी रूप से अभ्यासवश कोई कर्म तो कर रही होती हैं पर मन कहीं और होता है. यह अवस्था
जागृत और स्वप्न की मिश्रित अवस्था होती है. जागृत-स्वप्न की
मिश्रित अवस्था में
चेतन और अवचेतन मन दोनों सक्रिय रहते है और अहंकार अपने पूर्ण रूप में होता है.
ज्यादातर लोग इसी अवस्था में रहते है. किन्तु यह अवस्था मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं होती है. इसका
कारण यह है कि
, जागृत - स्वप्न की संयुक्त अवस्था में हम आत्मा द्वारा प्रदान की गयी ऊर्जा को पूरी तरह ग्रहण नहीं कर पाते है.
मन जहां रहता है ऊर्जा का प्रवाह अधिकांशतः उसी जगह हो जाता है और शरीर को उर्जा कम मिलती है . जब हम पिछली बातों या भविष्य की परिकल्पना के साथ कार्य का सम्पादन कर रहे होते है तो मन के वर्तमान में नहीं होने के कारण कार्यों में दिव्यता अर्थात शक्ति का समावेश नहीं हो पाता है. चेतना से पृथक होने के कारण कर्म उर्जायुक्त नहीं हो पाते है, जिसके कारण कर्म और उसके फल उपयुक्त प्रभाव नहीं ला पाते है या प्रभावहीन रहते है. इसलिए कर्मों को प्रभावी बनाने के लिए मन का वर्तमान में रहना अत्यंत आवश्यक है .
मन के अप्रिशिक्षित होने के कारण अधिकाँश लोग जागृत और स्वप्न अवस्था के मध्य ही रह जाते है. कुछ मेहनती साधक कभी कभी सुषुप्ति अवस्था को प्राप्त कर पाते है और कुछ बिरले साधक ही तुरीय अवस्था को प्राप्त कर सकते है.
स्वप्न आने का कारण
प्राचीन ग्रंथो जैसे अथर्ववेद, पुराण, उपनिषदों इत्यादि में स्वप्नों के विषय में विश्लेषण किया गया है. निद्रावस्था में सूक्ष्म शरीर भौतिक शरीर से पृथक होकर परम चेतना से जुड़ता है. इस प्रक्रिया में अपने भूत और भविष्य से भी संपर्क स्थापित कर लेता है। संपर्क के इस क्रम में विभिन्न प्रकार के स्वप्नों का निर्माण होता है ।
जब हम सोते है तो चेतन मन निष्क्रिय हो जाता है और अवचेतन मन सक्रिय हो जाता है. क्रियाशील अवचेतन मन स्वप्न का निर्माण करता है. अहम भाव कम होने के कारण स्वप्न अवस्था, भूत व भविष्य की घटनाओं को बताने के साथ साथ स्वभाव अर्थात व्यक्ति की प्रवृत्ति को भी बताते है. व्यक्ति की प्रवृत्ति अर्थात आतंरिक ऊर्जा का ढांचा, जो कि कर्मों के अनुसार निर्धारित होता है, स्वप्न अवस्था में अधिक प्रत्यक्ष होती है . कई बार अध्यात्म के गहरे रहस्यों का उद्घाटन और दिशा निर्देशन भी स्वप्न में प्राप्त होते है. किन्तु कई बार असंगत स्वप्न भी आते है जिसका कारण है मन का ज्ञानेन्द्रियों से पृथक नहीं हो पाना . मन जब तक ज्ञानेन्द्रियों से जुड़ा होता है, तब तक स्वप्न भी ज्ञानेन्द्रियों से सम्बंधित होते है.
ज्ञानेन्द्रियों का झुकाव वाह्य संसार और उसके क्रिया कलापों की ओर होता है . ज्ञानेन्द्रियों (कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका) के द्वारा ग्रहण की गयी वर्तमान जन्म की सूचनाए, अतृप्त इच्छाएं और अन्य जन्मों के संस्कार अवचेतन मन में विभिन्न परतों में संगृहीत रहते है.
वर्तमान जन्म की सोच और जिन अन्य बात से हम गहरे प्रभावित होते है वह ऊर्जा मन के सबसे उपरी परत पर होती है. जब स्वप्न की यात्रा आरम्भ होती है तो उस प्रक्रिया में सबसे पहले वाली वर्तमान की पर्त ही खुलती है. इसलिए स्वप्न भी प्रिय सम्बन्धियों, विरोधियों, कार्य क्षेत्र और भविष्य या भूत की हमारी चिंताओं, इच्छाओं से सम्बंधित होते है.
कई बार ऐसा भी होता है कि व्यक्ति को लगता है कि उसने स्वप्न नहीं देखा . किन्तु ऐसा होता नहीं है. क्योंकि यह कार्य अवचेतन मन का होता है, इसलिए प्रातः उठने पर हमें स्वप्न याद नहीं रहते है. यदि स्वप्न देखते समय अवचेतन और चेतन का सम्बन्ध बन जाता है तो स्वप्न हमें याद रह जाता है। ऐसा सम्बन्ध अधिकांशतः प्रातः काल होता है इसलिए हमें सुबह के स्वप्न याद रह जाते है.
जो व्यक्ति बिलकुल भी आध्यात्मिक नहीं होते है वह कोई भी स्वप्न नहीं देखते है क्योकि उनका मन सदैव कर्मों के बोझ के कारण जागृत अवस्था में भी गहरी नींद में होता है. उनमें अहम् की मात्रा अत्याधिक होती है. इस कारण उनका मन परम चेतना से संपर्क स्थापित करने में समर्थ नहीं होता है अतः स्वप्न नहीं देखता है.
आध्यात्मिक व्यक्ति भी स्वप्न देखता है और अन्य सांसारिक व्यक्ति भी। किन्तु दोनों के देखने में भिन्नता होती है. सांसारिक व्यक्ति का चेतन मन प्रशिक्षित नहीं होता है एवं कर्मों से बंधा हुआ होता है, जिसके कारण उसकी परम चेतना के साथ संपर्क बनाने, ऊर्जा ग्रहण करने और इस यात्रा के स्मरण रखने की सामर्थ्य कम होती है. जबकि आध्यात्मिक व्यक्ति का चेतन मन नियमों के पालन के कारण, स्वतंत्र, अनुशासित और अधिक क्षमतावान होता है जिसके कारण उसके स्वप्न स्पष्ट, स्मरणीय और उद्देश्य युक्त होते है.
सिद्ध व्यक्ति स्वप्न यदा कदा ही देखते है क्योंकि वह कर्मों से मुक्त होते है और उनका अहंकार विलुप्त होता है . वह जागृत, स्वप्न सुषुप्ति अथवा तुरीय अवस्था में भी पूर्ण जागृत और परम चेतना के साथ संयुक्त होते है. इस कारण उनका प्रत्येक कर्म उर्जावान, प्रभावी और मुक्तिप्रदायक होता है चाहे वह चेतना की किसी भी अवस्था में हो .
उपायों से स्वप्नों में परिवर्तन होने का कारण
अवचेतन मन, चेतन मन के द्वारा नियंत्रित होता है और चेतन मन को शक्ति वर्तमान में रहने से प्राप्त होती है. यही कारण है कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए वर्तमान में रहना अत्यंत आवश्यक है। वर्तमान में चेतन मन रहे इसके लिए ही दान, मन्त्र जाप, सत्संग इत्यादि का प्रावधान किया गया है. सकारात्मक ऊर्जा जब चेतन मन के द्वारा अवचेतन मन में पहुचती है तो वह अवचेतन मन से व्यर्थ के संस्कारों और सूचनाओं से मुक्त करने का कार्य आरम्भ करती है।
अवचेतन मन को खाली प्रक्रिया में मन कई प्रकार के स्वप्न देखता है अथवा अन्धकार को देखता है.
जब बहुत गहरी नकारात्मक ऊर्जा से मन को रिक्त कराते है उस अवस्था में इसका प्रदर्शन व्यर्थ की मार काट , विषैले जीव जंतु - अजगर, सर्प, छिपकली , शमशान सम्बंधित चीजें , काला धुआं, एक्सीडेंट, अन्य भय युक्त अप्रिय स्वप्नों और नींद में विघ्न के रूप में होता है. यह प्रक्रिया उस समय तक चलती रहती है जब तक वह विशेष कर्म / संस्कार पूरी तरह हट नहीं जाता .
जैसे जैसे अवचेतन मन व्यर्थ के संस्कारों से मुक्त होता जाता है सकारात्मक ऊर्जा और अंदर की परतों में प्रवेश करती जाती है। अवचेतन मन के विभिन्न स्तरों पर स्वप्नों की प्रस्तुति भी परिवर्तित हो जाती है. महत्वपूर्ण बात यह है कि इन स्वप्नों के मध्य एक क्रम होता है और एक पर्त के रिक्त होने की प्रक्रिया के उपरान्त चेतन मन में परिवर्तन का आभास होता है. स्वप्न के क्रम को इस प्रकार समझा जा सकता है - नकारात्मक ऊर्जा का स्वरुप प्रारम्भ में विशाल और अधिक भयावह हो सकता है, किन्तु नियमों का पालन दृढ़ता के साथ करते रहने पर उसका स्वरुप छोटा और कम भयावह होता जाता है.
जब सकारात्मक ऊर्जा चेतन मन से प्रवाहित हो कर अवचेतन मन में अवशोषित होने लगती है तो अनुभव नकारात्मक ही हो यह आवश्यक नहीं किन्तु सकारात्मक अनुभवों के लिए एक निश्चित मात्रा में ऊर्जा की आवश्यकता होती है. जब वह मात्रा एकत्र हो जाती है तो स्वप्न परिवर्तित हो जाते है. सकारात्मक ऊर्जा की एकत्र मात्रा और गुण के अनुसार, स्वप्न में इष्ट की पूजा, अन्य देवी देवताओं के दर्शन, भविष्य की घटनाओं का अनुमान , पवित्र नदियों - मंदिरों का दर्शन , कर्म सुधारने के लिए दिशा निर्देश आदि मिलने लगते है.
यहां पर एक विशेष बात ध्यान देने योग्य है कि जो हमारी इच्छा होती है वह भी स्वप्न के रूप में दिख जाती है. जैसे किसी की बहुत प्रबल काशी जाने की इच्छा है तो वह सुनी हुई घटना अथवा अत्यंत ध्यानपूर्वक देखे हुए सम्बंधित चित्रों के आधार पर स्वप्न में घूम कर आ सकता है. इसके साथ ही यदि शारीरिक विकार भी स्वप्नों को प्रभावित कर सकते है। यही कारण है कि दिव्य सपनों के सही रूप में आने के लिए अनासक्त होना आवश्यक है. जो व्यक्ति जितना अनासक्त होता है, उसके स्वप्न उतने ही अधिक सत्य होते है.
स्वप्नों के प्रकार
उपरोक्त समस्त तथ्यों को मिला कर स्वप्नों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है -
- अनुभूति के स्वप्न - जिन विषयों के बारे में हम व्यवहार में बहुत गहराई के साथ जुड़ जाते है , वह स्वप्न के रूप में दिखाई देते है
- श्रुत स्वप्न - जिन बातों को हम सोने से पहले सुन कर विचार कर लेते है वह स्वप्न में आते है
- ऐछिक स्वप्न - हमारी अतृप्त इच्छाएं और अत्यंत तीव्र इच्छाएं स्वप्नों में पूर्ण होती है
- दोषजन्य स्वप्न - जब शरीर में वात, पित्त और कफ दूषित हो जाते है तो वह मन को अपनी प्रकृति के अनुसार प्रभावित करने की सामर्थ्य रखते है
- कार्मिक स्वप्न - साधक के कुछ पूर्व जन्म के कर्म दैवीय कृपा से स्वप्न में होकर काट जाते है, जिसके कारण उसका भोग करने के लिए जन्म नहीं लेना पड़ता है
- आगम अथवा भाविक स्वप्न - भविष्य में होने वाली अच्छी बुरी किसी भी घटना का स्वप्न के रूप में पूर्वाभास होना
- दैवीय स्वप्न - ईश्वर के विभिन्न स्वरूपों का दर्शन चाहे वह सगुण स्वरुप हो, निर्गुण स्वरुप हो, ऊर्जा स्वरुप हो अथवा शब्द रूप हो - दैवीय स्वप्नों की श्रेणी में आते है. ऐसे स्वप्न श्रद्धा और विशवास को बनाये रखने के लिए आते है. साथ ही इस बात का भी निश्चय कराते है की साधक का पथ सही है. जैसे भगवान बुद्ध के जन्म के समय उनकी माता को दिव्य चिन्ह जैसे कमल, ऐरावत इत्यादि दिखाई दिए थे।
कार्मिक, भाविक और दैवीय स्वप्न महत्त्वपूर्ण होते है. कार्मिक स्वप्नों पर बहुत अधिक ध्यान देनें अथवा विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं होती है. क्योकि वह केवल समाप्त होने के लिए आते है इसलिए यह आवश्यक नहीं कि वह याद रहे।
भाविक स्वप्न सजग करने और ज्ञान देने के लिए आते है. कही कोई बुरी घटना होने वाली है उसका स्वप्न में आना का सूचक है कि घटना तो घटने ही वाली है - व्यर्थ में व्यथित होकर समय नष्ट नहीं करें. यदि सुखद घटना का संकेत आता है तो वह यह समझाता है कि घटना तो पूर्व निर्धारित है अहंकार नहीं करें। साधक को कई बार उससे भविष्य में होने वाली भूल भी इसीलिए बता दी जाती है. जिससे समय रहते साधक स्वयं को गिरने से बचा ले.
दैवीय स्वप्न साधक का उत्साह, साहस, विशवास और कर्मठता बना कर रखते है, जिससे साधक और ईश्वर में मध्य एक सेतु बन जाता है, जिस पर चलकर साधक और ईश्वर के मध्य का अंतर समाप्त हो जाता है. दैवीय स्वप्नों के लिए कुछ संचित कर्मों का समाप्त होना अनिवार्य होता है।
प्रत्येक साधक को यह स्मरण रखना अत्यंत आवश्यक है कि स्वप्न जीवन की इस यात्रा में प्रकृति के संदेशवाहक और दिशा निर्देशक होते है, जिससे हम जीवन की इस यात्रा में अपनी स्थिति का आंकलन करते है. इसलिए स्वप्नों का साधन की तरह उपयोग करना चाहिए. दिन भर उसका विश्लेषण ना कर, महत्वपूर्ण सन्देश ग्रहण कर आगे बढ़ जाना चाहिए.
स्वप्न का सही अर्थ सिद्ध गुरु ही बता सकते है क्योंकि प्रारम्भ में स्वप्न प्रतीकात्मक होते है, जिनका हमको ज्ञान नहीं होता है. जैसे जैसे नकारात्मक कर्म रूपांतरित होकर सकारात्मक स्वरुप लेते जाते है, स्वप्न अपना स्वरुप परिवर्तित कर लेते है. साथ ही हममे यह क्षमता भी नहीं होती कि इच्छा के कारण दिखने स्वप्नों और अन्य स्वप्नों में अंतर जान सके. इसलिए स्वयं से सपनों का अर्थ नहीं निकालना चाहिए.
माण्डूक्य उपनिषद के अनुसार जागृत अवस्था में बनाए गए संस्कार अविद्या , काम और कर्म से गति पाकर , स्वप्न अवस्था में बिना वाह्य उपकरणों के एक संसार का निर्माण करता है. जब हम अपनी जागृत अवस्था को उत्तम बनाते है तभी स्वप्न अवस्था उत्तम बनती है और साधक सुषुप्ति अवस्था से होता हुआ तुरीय अवस्था को प्राप्त कर पाता है. एक सिद्ध गुरु अपने शिष्य की निद्रा अर्थात स्वप्न स्थिति को भी साधना बनाने की सामर्थ्य रखता है, जिससे कई जन्मों की तपस्या कुछ समय में ही पूर्ण हो जाती है . फलस्वरूप शिष्य सदैव तुरीय अवस्था में और परम चेतना के साथ संपर्क में रहता है - आवश्यकता केवल गुरु के दिशा निर्देशनों का पूरी लगन के साथ पालन करने की होती है .......