जीवन के 4 पुरुषार्थ होते है . जिनकी प्राप्ति हर मनुष्य का ध्येय है . ये है . धर्म, अर्थ , काम और मोक्ष
धर्म शब्द की उत्पत्ति धृ शब्द से हुई है जिसका आर्थ है धारण करना . वह कर्म जो भी हमारे दिल में श्रृद्धा लाते है वही धर्म है .
कर्म ही धर्म बन जाते हैं जब हमारा चित्त शुद्ध होता है. शुद्ध कर्म तभी संभव हैं जब उसमे दिव्यता का समावेश हो और यह सिर्फ शुद्ध बुद्धि से ही संभव है , क्योंकि बुद्धि ही मन को नियंत्रित करती है. शुद्ध बुद्धि अनासक्ति और विवेक के साथ ही संभव है .
काम - तीसरा पुरुषार्थ है . काम (इच्छा ) जो की हमेशा परिस्थिति , व्यक्ति , अथवा वस्तु से ही सम्बंधित होती है . यह हमेशा हमारे मन में रहती है . काम , अर्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है क्योकि अपनी इच्छा की प्राप्ति के लिए धन का व्यय करने के लिए कोई भी तैयार हो जाता है . इसके साथ दोष यह है कि अगर इसका नियंत्रण सही समय पर न किया जाये तो इसमें भटकाव की संभावना अधिक होती है.
जब अर्थ और काम धर्म के साथ जुड़े नहीं होते तो शुरुआत में यह सुख का भ्रम उत्पन करते है . किन्तु बाद में दुःख का कारण बन जाते है . अर्थ और काम का संतुलित नियंत्रण केवल धर्म के द्वारा ही संभव है . धरम ही एक मात्र वो साधन है जो मन और आत्मा में तेजस्विता और प्रबोधता लाता है .
अधिकांशतः हम अर्थ और काम पर ही ध्यान देते है .मोक्ष और धर्म को भविष्य पर छोड़े देते है . अगर हम अर्थ और काम को भगवान के ऊपर छोड़ दे और अपनी उर्जा को धर्म और मोक्ष पर केन्द्रित करें तो बाकी चीजे अपने आप ही सुवय्वस्थित हो जाती है . हम संसार और कर्म से भाग नहीं सकते . तब हमें क्या करना चाहिए ? हमें धर्म , अर्थ और काम को समान रूप से व्यवहार में लाना चाहिए . केवल एक या दो चीजो में केन्द्रित हो जाने से ही मनुष्य का पतन होता है . इन तीनो का संतुलन ही मोक्ष प्राप्ति की कुंजी है . अगर अर्थ और काम को धर्म के साथ बांध दिया जाये तो यह हमारे जनम और मृत्यु के बंधन से निकलने में हमारे सहयोगी हो जाते है .
जीवन में सांसारिक, मानसिक और अध्यात्मिक उन्नति अर्थात जीवन के सम्पूर्ण विकास के लिए हमारे ऋषि मुनियों ने जीवन को चार भागों में बांटा था जिससे की हम धर्मं अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति सहज रूप से कर सकें . यह आश्रम व्यवस्था तीनो गुणों (सत्व, रज और तम )को संतुलित करती है .
पहला आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम है . जीवन के प्रथम २० से २५ वर्ष धर्मं ज्ञान और जीवन यापन हेतु आवश्यक ज्ञान की प्राप्ति गुरु के साथ अनुशाशन और दिशा निर्देशन में ब्रह्मचर्य के साथ प्राप्त की जाती थी . यह समय संस्कार रूपी बीज बोने के लिए उत्तम समय होता है . इसी के आधार पर अन्य आश्रमों की नीव रखीं जाती है .
अगले २० से २५ वर्ष गृहस्थ आश्रम के लिए होते थे. इसमें सांसारिक कार्यों और दायित्वों को निभाने की मर्यादा बनायीं गयी थी . यही वो समय होता है जिसमें देव, पितृ और गुरु ऋण से मुक्ति पाना अनिवार्य होता था .
तीसरा आश्रम वानप्रस्थ आश्रम है जिसमे संसार के क्रिया कलापों से धीरे धीरे दूर होकर अपना समय जाप स्वाध्याय ध्यान आदि में लगाना होता था . इस आश्रम में भी ब्रहमचर्य अनिवार्य था .
चतुर्थ आश्रम सन्यास आश्रम है जिसमे सारे सांसारिक बंधन छोड़कर अध्यात्म की उच्चतम स्थिति प्राप्त करने के लिए पूर्ण शक्ति और समय लगाने का विधान था .
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