ज्योतिष विज्ञान की उपादेयता
शरीर , मन और आत्मा से मिलकर एक मनुष्य पूर्ण बनता है. शरीर दृश्य है और मन एवं आत्मा अदृश्य. हम शरीर के हर अंग और कार्यो को देख सकते हैं, किन्तु, इसका संचालन हमारी बुद्धि करती है और जीवनी शक्ति आत्मा से मिलती है , जिसको हम न देख पाते हैं, न समझ पाते हैं क्योकि यह शरीर के अत्यंत सूक्ष्म भाग है.
कोई भी व्यक्ति बिना भावों के जी नहीं सकता। हमारे सुख-दु:ख, मित्र-शत्रु, प्रसन्नता-अवसाद आदि सभी भावों पर आधारित हैं। इन्हीं के अनुरूप हमारी प्रतिक्रियाएं होती हैं। जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण ही इनका आधार तय करता है। भाव कहां से आते हैं?
जिस प्रकार शक्कर पानी में घुलकर एक हो जाती है , शक्कर के कण अदृश्य हो जाते है , पानी में सिर्फ घुलनशील शक्कर की सूक्ष्मता का प्रभाव शेष रह जाता है उसी प्रकार स्थूल कर्मो से निर्मित सूक्ष्म संस्कार भी मन पर शोभित होकर अंकित हो जाते है .मनुष्य के भीतर सद्गुणों और दुर्गुणों दोनों का ही संग्रह है. मनुष्य अपने अपने संस्कारों के कारण भिन्न भिन्न हो सकता है. गुण-अवगुण, असुर-देवता, साहस-कायरता, आशा-निराशा, सुख-दुःख, कमाना-वासना, लोभ-लालच, क्रोध और अहंकार आदि तत्वों का अनुपात हमारे सारे कर्मो के अनुपात के आधार पर होता है.
मन सुनियोजित विचारधारा में सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न करता है. इन्द्रियों के द्वारा मन की भूमि में ही विचार जन्म लेता है, पलता है और बहलाता है किन्तु मन स्वं हमारे वश में न होकर इन्द्रियों के वश में रहता है और वह जैसा निर्देश करती है उसके अनुसार कर्म करता है. सामान्यतः चुनाव शुभ अथवा अशुभ विचारों की तीव्रता पर निर्भर करता है जो सबसे अधिक ताकतवर होता है. मन रूपी घोडा उसी की और दौड़ पड़ता है .मनुष्य अपने संस्कारों से बंधा है . प्रत्येक जन्म में उसका संस्कार पीछा कर रहा है . चेतना या अचेतना हर परिस्थिति में इन्ही संस्कारों के अधीन रहकर वहा कार्य करने को विवश है . गीता में कहा है की शरीर रथ है, आत्मा रथी है, इन्द्रियाँ घोड़े है और मन लगाम है. यदि मन को नियंत्रित नही किया गया तो इन्द्रिया रूपी घोड़े इस रथ को कहीं भी भगा कर ले जा सकते है और गलत कार्य करवा सकते है. जिनके प्राण केंद्र (चक्र) कमजोर होते है और मन का उचित दिशा में विकास नहीं हुआ तो बुद्धि गलत दिशा में भटक जाती है.
हमारी चेतना हमेशा बिखरी और बहिर्मुखी होती है. निम्न प्रकृति जिधर हमें हांकती है हम उधर ही चल देते है . बुद्धि शुद्ध और पवित्र न होने के कारण गुण दोषों पर ठीक से विचार नहीं कर पाते . हमारे समस्त कर्म प्रायः अज्ञान और अहंकार की शक्तियों द्वारा संचालित होते है इसी कारण कर्म में गलतियाँ होती है और परिणाम में दुःख प्राप्त होता है .
हमारे अधिकांशंत कर्म अशुभ संस्कारो की वजह से यांत्रिक होते है. अज्ञान में किया गया कर्म अपने और दूसरो के लिए दुखदायी तो होता ही है साथ ही वह कर्ता को भी बंधन में बांधता है. जिसकी वजह से कर्मफल भोगने ले लिए बार-बार शरीर धारण करना पड़ता है. अज्ञान , कामना और अहंकार के कारण मिथ्या पूर्ण जीवन हर जन्म में जीते रहते है.
बहिर्मुखी इन्द्रियों के प्रतिक्रिया स्वरूप मन क्षुब्ध अथवा चंचल होता है ; अतः जो अपनी इन्द्रियों के प्रति जितना सजग है उसका मन का नियंत्रण उतना सहज हो जाता है . जिसका मन इन्द्रियों से चलायमान होकर जितना अधिक विकारों और दुष्टता से भरा हैं उसका मन वाह्य आघातों -प्रतिघातों से उतना ही दुखी और तनावग्रस्त होता है .
अपने विचार और कर्मो के द्वारा जो क्रोध , हिंसा , राग द्वेष , सत्य -असत्य आदि के बीज मानस पटल पर हमने बोया है, जिसका चिंतन और अभ्यास जीवन भर किया है एक दिन उसकी फसल तो काटनी ही होती है अर्थात उसका फल कर्ता को भोगना ही होता है
शुद्ध कर्म करने के लिए दो रास्ते है - पहली है इन्द्रियों का संयम. इन्द्रियों की सहायता से ही इच्छाए मन में प्रवेश करती है और मन को विकृत करती है. इन्द्रिया पांच होती है , जैसे ही एक को पकड़ो वासना दूसरा रास्ता ढूंड लेती है . दूसरा रास्ता है कि मन को ही रूपांतरित कर लिया जाए. मन को स्वानुशाषित करना ही समस्या का स्थायी समाधान है . क्योकि सारी इन्द्रियों का संगम मन पर होता है यह काम चेतना को उर्ध्वगामी किये बिना संभव नहीं है .शुद्ध मन में ही शुद्ध विचार आ सकते है और शुद्ध विचार ही शुभ कर्म करवा सकते है और दुष्कर्मो पर अंकुश लगवा सकते है . हमारा असली व्यक्तित्व बाहर नहीं भीतर है . भीतर का व्यक्तित्व जब तक बदलता नहीं , बाहर सही अर्थो में सुधार नहीं हो सकता . बाह्य ज्ञान प्राप्त करने का समुचित उपयोग भीतर बदलने पर ही हो सकता है .
कर्म से संस्कार बनते है और संस्कार से कर्म करने की प्रेरणा मिलती है .जीवन में कर्म को रोकना असंभव है इसलिए कर्म का त्याग भी असंभव है . संभव इतना ही हो सकता है कि एक कर्म को छोड़कर दूसरा कर्म शुरू कर दिया जाए. जो कर्म को छोड़कर भागेगा उसकी ऊर्जा व्यर्थ के कामो में क्रियाशील हो जाती है, इसलिए कर्म से अधिक कर्ता को बदलने की जरुरत होती है क्योकि कर्म व्यक्ति के भीतर से ही निकलते है.
कर्म ही बंधन है . और कर्म ही मुक्ति का मार्ग भी क्योंकि शुभ कर्म करके ही प्रारब्ध और संचित संस्कारों से मुक्ति मिल सकती है .
ग्रह का अर्थ होता है - कसकर पकड़ना या बंधना . ग्रह हमारे समस्त कर्मो का प्रतिनिधित्व करते है. किसी भी ग्रह की स्थित हमारे कर्म की गुणवत्ता का निर्धारण करती है और हमें एक निर्धारित तरीके से कर्म करने को बाध्य करती है.
ग्रहों की बुरी स्थिति हमारे पाप कर्मों को दर्शाती है जो की हमारी वर्तमान समस्याओ का कारण बनते है वह समस्या चाहे आर्थिक हो, मानसिक हो या आर्थिक . उन्ही ग्रहोंbका उपाय हमारे पूर्व जनम कृत पापों का निवारण करने और हर प्रकार की समस्याओं से मुक्ति पाने में हमारी अत्याधिक सहायता करता है.
ज्योतिष दूषित चेतना के शुद्धिकरण और परिवर्तन का रास्ता दिखाता है. जन्म जन्मान्तरों के अशुद्ध संस्कार जो परत दर परत जमा होकर अशुद्ध करते हैं. ज्योतिष इनसे मुक्ति दिलाकर मन मैं शुद्धता लाता है एवं ज्ञान और सत्य के साथ कर्म की प्रेरणा देता है. ज्योतिष व्यक्ति की अन्तेर्निहित शक्तियों का विकास कर उसमे पूर्णता लता है क्योंकि यही एक ऐसा साधन है जिससे मनुष्य अपनी आत्मा के ऊपर से अज्ञानता का आवरण हटा पाता है. इसके लिए संकल्प , साहस, त्याग, निष्ठा , लगन , और अदम्य इच्छा की आवश्यकता होती है साथ ही उचित मार्गदर्शन की जरुरत होती है . यदि ये गुण हमारे चरित्र में है तो निश्चय ही कर्म की श्रंखला तोड़कर मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है .
अस्थायी संस्कार रोज बनते और नष्ट होते है जिसके लिए रोजमर्रा की पूजा ही काफी होती है किन्तु पक्का संस्कार तब तक नष्ट नहीं होता जब तक मनुष्य सजग रहकर उसे नष्ट करने का प्रयास न करें . पक्के संस्कार सुनियोजित तरीके से किये गए ज्योतिषीय एवं तांत्रिक उपायों और दैवीय कृपा से ही संभव है.