आत्मा के स्तर पर जीने का अर्थ है जागृत होकर जीना . जागृत होकर जीने के लिए शरीर, मन, संसार/ प्रकृति और ईश्वर के नियमों का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है. ज्ञान होने के पश्चात उससे सम्बंधित सभी आवश्यक नियमों का व्यवहार में पालन करना अत्यंत आवश्यक है. जब ज्ञान व्यवहार में उतरने लगता है तो मानवीय चेतना, परम चेतना अर्थात ईश्वर के साथ जुड़कर, शरीर और मन के स्तर से ऊपर उठ जाती है।
यहां पर अब सृष्टि के एक नियम के विषय में विचार करना महत्त्वपूर्ण है। वह है कर्म का नियम। हमारा शरीर, मन, सम्बन्ध और सुख-दुःख की परिस्थितियां सब कुछ कर्म के नियम के अनुसार ही प्राप्त होता है। उस पर भी मन जो कि आत्मा से जुड़ने का एक महत्वपूर्ण यंत्र है, उसी में हमारे पूर्व जन्मों की असंख्य वासनायें/ इच्छाएं / संस्कार सब कुछ समाहित होता है। इन्ही संस्कारों से हमारा स्वभाव बनता है और उसी के अनुरूप हम वर्तमान में क्रिया एवं प्रतिक्रिया करते रहते है। हमारा चयन करने का अधिकार जो हमें प्रकृति से प्राप्त है , वह भी इन पूर्व कृत कर्मों के द्वारा प्रभावित होता है। और स्वभाव से प्रभावित होकर जिसका भी हम चयन करते है वह उसी संस्कार को और प्रबल करता है। तो प्रश्न यहाँ पर यह उठता है कि मनुष्य को पूर्व जन्म के सघन संस्कारों के प्रबल प्रभाव से मुक्ति कैसे प्राप्त हो ?
इस प्रकार जब एक समस्या का समाधान होता है और नए शुभ कर्मों की शक्ति मन को सकारात्मक ऊर्जा देकर जीवन को एक नया दृष्टिकोण देती है। जिसके फलस्वरूप मैं कौन हूँ इत्यादि प्रश्न मन में उठने लगते है। वाह्य संसार से मन कुछ क्षण हटकर आतंरिक विश्लेषण की ओर प्रवृत्त होता है और शुभ कर्म करने की ओर झुकाव होने लगता है। यही वह समय होता है जब मन को पुनः संकल्प के द्वारा दिशा दी जाए तो वह आत्म ज्ञान की राह पर चल पड़ता है। इस मार्ग पर प्रवृत्त होने के उपरान्त भी पूर्व संस्कार समय समय पर बाधाये खड़ी करते है। मन विचलित होता है और प्रश्नो के उत्तर भी पूर्णतः संतुष्ट नहीं कर पाते है। प्रकृति के नियम जटिल होने के कारण मन में कई बार निराशा भी घेरने लग जाती है। ऐसे समय में गुरु पर विश्वास और उनके बताये हुए नियमों का हर परिस्थिति में अभ्यास ही एकमात्र और सर्वश्रेष्ठ उपाय होता है।
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