१. क्षिप्त - मन विविध विषयों में ही उलझा रहता है. इश्वर विषयक ज्ञान के लिए कोई बौध्दिक शक्ति और इच्छा दोनों ही नहीं होती है . रजो गुण कि प्रधानता होने के कारण सदैव एक वस्तु से दूसरी वस्तु में भटकता रहता है .२. मूढ़ - क्रोध, निद्रा , तन्द्रा , आलस्य , मूर्छा आदि अवस्थाओं में जीवात्मा को जब विशेष ज्ञान नहीं होता अथवा विशेष ज्ञान नहीं कर पाता है. इस अवस्था में तमोगुण प्रधान होता है . इन्द्रियों के विषयों पर मोहित होने के कारण तत्व चिंतन की ओर ध्यान ही नहीं जाता . क्रोध इत्यादि के वश में कार्य करता है. धर्म अधर्म का विवेक नहीं रहता है .३. विक्षिप्त - जिस अवस्था में मनुष्य किसी विशेष विषय पर अपने चित्त को एकाग्र करने का प्रयास करता है तो चित्त में कुछ एकाग्रता आती है ! परन्तु वह स्थिति किसी बाधक कारण से भंग हो जाती है, चित्त कभी कभी स्थिर कभी कभी अस्थिर होता है, उसको विक्षिप्त अवस्था कहते हैं ! कभी कभी सत्व गुण का प्रभाव आता है.४. एकाग्र - जिस अवस्था में योगाभ्यासी विवेक, वैराग्य, और अभ्यास से अपने चित्त को योग के लिए अपेक्षित किसी एक विषय अथवा वृत्ति में अधिकारपूर्वक बहुत काल तक स्थिर कर लेता है , उसको एकाग्र कहते हैं ! स्वप्न में भी स्थिरता बनी रहती है . इसमें सत्व गुण का आधिक्य रहता है.५. निरुद्ध - मन एकाग्र होकर स्वयं को भूल जाता है , उस अवस्था में चित्त कि समस्त वृतियों का सत्व गुण के आधिक्य से निरोध हो जाता है ! इसको निरुद्ध अवस्था कहते हैं !
(1) प्रमाण : जानने का उपाय प्रमाण कहलाता हैं . प्रमाण के तीन प्रकार है- प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा सीधे जो अनुभव होता है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है . जब किसी वस्तु की सत्ता का ज्ञान अन्य वस्तु के ज्ञान द्वारा प्राप्त हो वह अनुमान प्रमाण कहलाता है. पूर्वज्ञान के पश्चात होने वाला ज्ञान अनुमान है अर्थात जो प्रत्यक्ष पर आधारित हो . जब किसी तथ्य की सूचना शब्द अथवा लिखित माध्यम से प्राप्त होती है तो उसे शब्द प्रमाण कहते है .(2) विपर्यय : गलत आभास को मिथ्याज्ञान अर्थात विपर्यय कहते हैं। इसके अंतर्गत संशय या भ्रम को ले सकते हैं। जैसे रस्सी को देखकर हम उसे सांप समझने की भूल करते रहें। विपर्यय अविद्या, अस्मिता,राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पांच क्लेशों से युक्त है.(3) विकल्प : जिसके विषय में असमंजस हो और उसकी मन से कल्पना की जाए उसको विकल्प कहते है । शब्दज्ञान अर्थात् सुनी-सुनाई बातों पर पदार्थ की कल्पना अर्थात अयथार्थ चिंता करना ही विकल्प वृत्ति है. इसमें व्यक्ति वर्तमान से अलग होकर अपने एक संसार का निर्माण कर दुखों को निर्मित कर लेता है।(4) निद्रा : विषयागत बोध का अभाव निद्रा है। नींद में भी चित्त की समस्त वृत्तियां सक्रिय रहती है तभी अच्छे और बुरे स्वप्न आते हैं।(5) स्मृति : संस्कारजन्य ज्ञान है, जिन अनुभूतियों को हम भूल नहीं पाते हैं या अनुभव में आए विषयों का बार बार स्फुरित होना स्मृति है । अच्छी या बुरी घटनाओं की स्मृति रहने से क्लेश उत्पन्न होते हैं।
- व्याधि - यह शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार की हो सकती है. यदि दोनों रूप से स्वस्थ्य नहीं होंगे अधिक दूर नहीं चल पायेंगे . प्राण ऊर्जा जहा भी विकार होता है वहां एकत्र होकर अवरूद्ध हो जाती है .
- स्त्यान - चित्त की अकर्मण्यता - इसमें व्यक्ति सब प्रकार की बाते अवश्य करता है किन्तु क्रियान्वय के लिए प्रयत्नशील नहीं हो पाता है।
- संशय / संदेह - इसके कारण दृढ़ता में कमी होती है।
- प्रमाद - जान बूझकर व्यर्थ के कामो में पड़ना और असावधानी के साथ कार्य करना
- आलस - शरीर व मन में एक प्रकार का भारीपन आ जाने से योग साधना नहीं कर पाना.
- अविरती - अच्छी अथवा बुरी बातों का चिंतन
- भ्रांतिदर्शन - वास्तविकता से परे अपने मन के अनुसार अर्थ निकालना
- अलब्धभूमिकत्व - फल की प्राप्ति नहीं दिखने पर सही कार्य को छोड़ देना अर्थात सतत प्रयास नहीं करना
- अनवस्थितत्व - अगली अवस्था तक पहुंचने अर्थात उन्नति होने पर भी मन स्थिर न रहना, किसी एक स्थान या कार्य में ज्यादा देर मन नहीं लगना ही अनवस्थितत्व है। यह भी मन की चंचलता के कारण उत्पन्न विकृति है।
मन को एकाग्र करना अत्यंत दुष्कर कार्य है . यह बार बार विचलित होता रहता है और विभिन्न विषयों की ओर भटकता रहता है . मन प्रकृति से उत्पन्न हुआ है , इसलिए वह प्रकृति अर्थात माया से अधिक प्रभावित होता है । मन एक है और वह एक समय में, एक ही विषय को ग्रहण तथा अनुभव करता है यही कारण है कि संकल्प के द्वारा उसको एक लक्ष्य पर टिकाने का बारम्बार अभ्यास मन की चंचलता को समाप्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण कुंजी है. एकाग्रता प्राप्त करने के लिए बार बार प्रयत्न करना अभ्यास है . अभ्यास तभी सफल होता है जब लम्बे समय तक दृढ संकल्प और समर्पण के साथ करते है . बहुत अधिक चंचल और विशाल वृत्तियाँ होने के कारण इसको धीरे धीरे प्रशिक्षित किया जाता है. प्रशिक्षण के विभिन्न चरणों में मन की स्थिति अलग अलग इस प्रकार विकसित होती है -
निरंतर अभ्यास के फलस्वरूप जब तृतीय चरण में पहुचते है तो आत्मविश्वास में और वृद्धि होती है . मन में विक्षेप तो होता है किन्तु उसके लिए दृष्टा का भाव जागृत होता है . जिसके कारण मन को अपने विषय पर केन्द्रित करना पहले की तुलना में अधिक सहज होता है . इसके पश्चात चतुर्थ चरण में प्रवेश होता है . इस अवस्था में मन के भटकने की चिंता नहीं रहती है. यद्यपि वह भटकता तो है किन्तु उससे अधिक सही चीजों के करने पर ध्यान अधिक रहता है और मन के विचलन की चिंता नहीं रहती है .
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