कुण्डलिनी शब्द कुंडल से बना है. कुण्डलिनी हमारे मेरुदंड के अंतिम छोर पर साढ़े तीन बार वलय बना कर सुषुप्त अवस्था में बैठी होती है. तीन वलय तीन गुणों (सत्त्व, रज, तम) को दर्शाते हैं. आधा वलय साधना की उच्चतम स्थिति (ज्ञान) को प्रकट करता है. हमारे शरीर में सूक्ष्म उर्जा के प्रवाह के लिए ७२००० नाड़ियाँ हैं जिसमे से सुषुम्ना, इडा और पिंगला, तीन प्रमुख नाड़ियाँ हैं. इडा नाडी का समबन्ध मानसिक उर्जा से है और यह शारीर के बाये भाग में स्थित होती है. पिंगला नाडी का सम्बन्ध प्राण शक्ति से है और यह शरीर के दाहिने भाग में स्थित होती है. सुषुम्ना नाडी इन् दोनों नाड़ियों के बीच में स्थित होती है और इसका सम्बन्ध अध्यात्मिक चेतना से है. तीनों नाड़ियाँ मूलाधार चक्र से शुरू होती हैं और आज्ञा चक्र पर जा कर समाप्त होती हैं. कुण्डलिनी का जागरण मंत्र जाप, तपस्या, शरीर और मन का शुद्धिकरण, प्राणायाम, मुद्रा, तांत्रिक उपाय और शुद्ध समर्पण से ही संभव है.
तंत्र साधना के दो मुख्य स्तम्भ है - प्रथम है शरीर और दूसरी है आत्मा
आत्मा और शरीर को जोड़ने वाली मुख्य कड़ी मन है .
हमारे इस भौतिक शरीर में अन्य छह शरीर बीज रूप में विद्यमान जिनके अपने अपने केंद्र है. यही केंद्र चक्र कहलाते है . इस तरह प्रत्येक चक्र प्रत्येक शरीर का बीजकेन्द्र है जो इस प्रकार है -
१- भौतिक - मूलाधार चक्र
२- भाव शरीर - स्वाधिष्ठान चक्र
३- सूक्ष्म शरीर - मणिपुर चक्र
४- मनः शरीर - अनाहत चक्र
५- आत्म शरीर - विशुद्ध चक्र
६- ब्रह्म शरीर - आज्ञा चक्र
७- निर्वाण शरीर - सहस्त्रसार चक्र
प्रत्येक शरीर का सम्बन्ध जीवन के सात वर्ष से है. जीवन के पहले सात वर्ष में भौतिक शरीर विकसित होकर परिपक्व होता है और शेष शरीर निष्क्रिय रहते है इसलिए इस समय कोई भी मानसिक क्रिया जैसे बुद्धि , कामना और भावना का विशेष विकास नहीं होता है केवल शरीर की वृद्धि होती है.
दूसरे सात वर्ष भाव शरीर का विकास होता है भाव शरीर में ही सारी इच्छाओ का समावेश होता है इसलिए इसे वासना शरीर भी कहते है.
तीसरा मनः शरीर बौद्धिक चिन्तन और विचारो का गढ़ होता है . इस केंद्र में स्थित लोग विचारक और मनस्वी होते है.
चौथा मनः शरीर अत्यंत महत्वपूर्ण है. जैसे की ऊपर कहा गया है की शरीर और आत्मा को जोड़ने वाली कड़ी मन है. मनः शरीर में ही यह शक्ति है कि अगर इस शरीर को विकसित किया जाये तो बिना बोले बिना कहे अपने विचार दूसरों तक पंहुचा सकते है और दूसरों के भावो को भी बिना अभिव्यक्ति के समझ सकते है. इसी शरीर में इच्छानुसार अन्य लोकों में भ्रमण की क्षमता होती है. इसी शरीर से साधना की सही शुरुआत होती है.
३५ वर्ष की उम्र तक अगर सही विकास हो जाये तो आत्म शरीर की उपलब्धि संभव है . पंचम आत्म शरीर को अध्यात्म शरीर भी कहते है क्योकि इसी शरीर से आत्मज्ञान की जिज्ञासा उत्पन्न होती है और आत्म अनुभव एवं आत्मसाक्षात्कार के लिए हम योग्य भी इसी केंद्र पर आकर होते है . इस शरीर का विकास और परिपक्वता तभी संभव है जब मनः शरीर पूर्ण रूप से विकसित हो जाए.
ब्रह्म शरीर की सबसे बड़ी उपलब्धि है अहम् ब्रह्मास्मि . इसके विकास की सम्भावनाये ४२ वर्ष की अवस्था तक है.
सांतवा शरीर निर्वाण शरीर परम स्थिति है जहां पर पहुच कर कुछ भी शेष नहीं रहता है सब कुछ समाप्त हो जाता है.
प्रथम तीन शरीर पशु भाव के अंतर्गत आते है और अंतिम तीन शरीर दिव्य भाव के अंतर्गत.
पशु भाव में प्रथम शरीर स्थित व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन रस खान पान और सामान्य व्यवस्थाओं में ही व्यतीत हो जाता है.भाव शरीर में स्थित व्यक्ति विचारों, भावो और वासनाओ में ही उलझा रहता है. तृतीय भाव अर्थात सूक्ष्म शरीर में अपनी शिक्षा संस्कृति और सभ्यता के अनुसार विकास होता है और ऐसे व्यक्ति भावनाओ और वासनाओ से ऊपर उठकर बुद्धि और अच्छे विचारो को अधिक महत्व देते है.
यह तीन शरीर वस्तुपरक जगत के अन्दर आते है और प्रत्यक्ष प्रमाण पर निर्भर है.
अंतिम तीन शरीर केवल आत्मिक अनुभूति है जिसका प्रमाण सिर्फ स्वयं साधक या अनाहत चक्र में स्थित व्यक्ति को ही मिलता है यही कारण है कि जब साधारण व्यक्ति ईश्वर और सम्बंधित अनुभूतियों को चुनौती देता है तो ज्ञानी जन मौन हो जाते है .
इन सातों शरीरों के कुछ विशेष प्रकृति प्रदत्त गुण होते है जो कि केवल जन्म और मृत्यु का कारण बनते है. अगर इन प्रकृति प्रदत्त गुणों का साधना के माध्यम से दैवीय गुणों को विकसित कर लिया जाये तो आत्मसाक्षात्कार संभव हो जाता है .
शरीर |
चक्र |
प्राकृतिक गुण |
साधना द्वारा रूपांतरित गुण |
१-भौतिक |
मूलाधार |
भय, घृणा, लिप्सा , हिंसा, आवेश |
अभय, प्रेम और अहिंसा |
२- भाव |
स्वाधिष्ठान |
कामवासना,क्रोध, घृणा |
ब्रह्मचर्य,संतुलन ,विनय,क्षमा |
३- सूक्ष्म |
मणिपुर |
संदेह, विचार,लोभ, भय |
श्रद्धा, विवेक |
४- मनः |
अनाहत |
कल्पना, स्वप्न, आलस्य |
प्रेम,संकल्प, भलमनसाहत, अतीन्द्रिय दर्शन |
५- आत्म |
विशुद्ध |
अहंकार,ईर्ष्या |
आनंद,दृढ़ इच्छा शक्ति,भावनाओ का संतुलन , शांति |
६- ब्रह्म |
आज्ञा चक्र |
शरीर दिव्य दृष्टि, एकाग्रता, मानसिक दक्षता | |
७- निर्वाण |
सहस्त्रसार |
दिव्य चेतना एवं ज्ञान |
हमारे शरीर में ये जो सात सूक्ष्म अध्यात्मिक चक्र है . साधना के द्वारा ही ये बंद चक्र खुलते है और इन्ही के माध्यम से चेतना का आरोहण और अवरोहण होता है .चेतना की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर हम अपने भाग्य और प्रारब्ध को जानकर काट सकते है और भविष्य की दुर्घटनाओ की दिशा मोड़ सकते है
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