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चेतना के रूपांतरण के लिए आवश्यक तथ्य

 व्यक्ति इच्छा अनुसार कर्म करने में तो स्वतंत्र है परन्तु इच्छा अनुसार फल की प्राप्ति में स्वतंत्र नहीं है . जब इच्छा अनुसार फल की प्राप्ति नहीं होती तो मनुष्य दुखी हो जाता है . मनुष्य  स्वभावत: दुखो को ग्रहण करने के लिए ज्यादा अभ्यस्त है  अर्थात दुःख को सहजता से स्वीकार  लेता है । दुःख को आसानी से ग्रहण करने की प्रवृत्ति के कारण मनुष्य को  थोड़े से दुःख की अनुभूति भी  अधिक प्रतीत होती है !  यह माया के प्रभाव के कारण होता है. माया से प्रभावित होकर  व्यक्ति इस दुःख दायक संसार को सब कुछ समझता है. मनुष्य का यही अज्ञान  उसके दुखो का कारण है. इसीलिए दुखों  से छुटकारा पाने के लिए उसकी अविद्या अर्थात अज्ञान से मुक्ति आवश्यक  है. अज्ञान से मुक्ति केवल आत्मा के ज्ञान से ही सम्भव है .सत्य का ज्ञान अर्थात तत्व ज्ञान हमें स्वतंत्र करता है अर्थात सुख दुःख से मुक्त करता है ! ईश्वर के प्रति जागरूकता अर्थात चेतना ही सत्य की ओर ले जाती है !


अब प्रश्न यह उठता है कि इस जागरूकता का अर्थ क्या है और इस  को कैसे  प्राप्त किया जा सकता है ? चेतना के साथ जीना अर्थात वर्तमान  में जीना ! हम जो भी कर रहे है उसके प्रति पूर्ण रूप से सजग रहना ही चैतन्यता है ! सजग रह कर किसी भी परिस्थिति को केवल देखना किन्तु उसके लिए कोई दृष्टिकोण नही बनाना  अथवा आलोचना नहीं करना ही जागरूकता है ! 

इस चेतना की प्राप्ति में मन चंचलता के रूप में सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न करता है. अधिकांशतः  यह होता है कि हमे हमारा मन जहाँ  ले जाये वही बह जाते है और उस के अनुरूप व्यवहार  करते है . मन की चंचलता को आसानी से नियंत्रित नही किया जा सकता है. इसका कारण यह है कि मन हमेशा ज्ञान को अस्वीकार करता है क्योंकि ज्ञान होने का अर्थ है मन से विचारो का ख़त्म हो जाना ! यदि मन से विचार ख़त्म हो जाये तो मन का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है. यही कारण है कि मन को सुशासित करने में मन संकल्पों विकल्पों के द्वारा भ्रम की परिस्थितियां उत्पन्न कर प्रगति का मार्ग अवरुद्ध करता है.  यदि मन को संयमित करना है तो  इसके लिए मन की प्रवृत्ति को समझकर प्रशिक्षित करना पड़ता है. यदि मन नियत्रित हो जाता है तो यही मन आध्यात्मिक चेतना के उच्च शिखर पर पंहुचाने का महत्वपूर्ण माध्यम बन जाता है. 

मन के नियंत्रण और चेतना के रूपांतरण के लिए आवश्यक तथ्य -

१- गुरु का मार्गदर्शन - वह आत्मा जिसमे परमात्मा की अभिव्यक्ति हो गयी है वही गुरु कहलाता है. गुरु में ही वह सामर्थ्य होता है कि शिष्य की आत्मा में आध्यात्मिक शक्ति का विकास कर सके. ज्ञान तो विभिन्न पुस्तकों के माध्यम से भी प्राप्त किया जा सकता है किन्तु  ऐसा ज्ञान केवल जानकारियों का संग्रह मात्र ही सिद्ध होता है . ऐसा इसलिए होता है क्योकि केवल आत्मा में ही वह शक्ति होती है जो शब्दों को अर्थ देती  है और ह्रदय को आंदोलित करती है.

 २ - विश्वास - जीव की मुख्य समस्या यह है कि वह इश्वर की चिंता तो करता है परन्तु इश्वर पर उसका विश्वास दृढ नहीं होता है ! श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार तोते की तरह रटे रटाये तरीके से 'इश्वर की इच्छा' मुंह से कह देने से काम नहीं चलता. ऐसा  विश्वास शुद्ध नहीं होता है . जब तक ईश्वर को जाना नहीं जाना जाता और उनकी इच्छा में हमारी इच्छा का समावेश नहीं होता तब तक विश्वास फलीभूत नही होता. बिना शुद्ध विश्वास के  ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं होती है !
जब ब्रह्म ग्यानी गुरु के मुख से ज्ञान मिल जाये  उसके बाद  किसी प्रकार का तर्क वितर्क नहीं करना चाहिए. तार्किक अथवा हिसाबी बुद्धि से इश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता ! यदि गुरु के वचनों पर विश्वास पूर्ण हो तो इश्वर को प्राप्त करने के लिए अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती है.  गुरु वाक्य में विश्वास बालक की तरह होना चाहिए. जैसे माँ अपने बच्चे को जब अन्य रिश्तों से परिचय करवाती  है तो बच्चा विश्वास करता है कि यही सत्य है. इसी तरह जब शिष्य  गुरु के वचनों पर  विश्वास करता है तो इश्वर की प्राप्ति सहज हो जाती है.
 
३ - त्याग - मन से सम्पूर्ण त्याग किये बिना इश्वर की प्राप्ति संभव नहीं होती ! विषयों के प्रति आसक्ति का त्याग , चेतनता जाग्रत करने के लिए आवश्यक है. जब तक चेतनता जागृत नहीं होती है तब तक इश्वर के प्रति प्रेम जागृत नहीं होता है.  मन से आसक्ति के जाने पर ही परमात्मा के प्रति व्याकुलता उत्पन्न होती है ! मन स्वाभाविक रूप से इन्द्रियों के सुख के प्रति लालायित रहता है और उन सुखों की प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार के कर्मो में आसक्ति पैदा करवा देता है . यही भोग की प्रवृत्ति विभिन्न कष्टों का कारण बनती है ! विषयों के भोग में रत रहने पर समस्त समय और ऊर्जा उसी में व्यर्थ हो जाती है और इश्वर से योग हेतु समय और शक्ति दोनों ही शेष नहीं रहती .  काम, क्रोध लोभ आदि को सहजता से एकाएक समाप्त नहीं किया जा सकता है. संसार में काम और क्रोध वासनाओं और आसक्तियों, इन सब के साथ निरंतर संघर्ष करना पड़ता  है इसके लिए लम्बे समय तक सुव्यवस्थित प्रयास करना पड़ता है. इस प्रयास को सहज करने के लिए उनकी दिशा ईश्वर की ओर मोड़ देनी चाहिए ! अगर सुई पर मिटटी लगी हो तो चुम्बक सुई को खीच नहीं सकता. यदि  मिटटी साफ़ कर दी जाये तो सुई चुम्बक की और खीच जाती है, इसी तरह इश्वर में आकर्षण का गुण विद्यमान है किन्तु हमारी अशुद्धियों के कारण हम इश्वर की और जा नहीं पाते है ! संस्कारों की तीव्रता के आधार पर विषयों के प्रति आकर्षण होता है. विषयों के प्रति इस आकर्षण के कारण ईश्वर से हम दूर हो जाते है. विषय बुद्धि का त्याग  करने के लिए सत्व गुण का विकास शारीरिक नियम और मानसिक अनुशासन के द्वारा करना पड़ता है  जैसे जैसे सत्व गुण का विकास होता है वैसे वैसे  विषय कर्मो को मन त्याग देता है. 

 ४ - अभ्यास - मन की समस्त शंकाओं का निराकरण कर गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान पर चिंतन करना ही मनन कहलाता है. मन की समस्त शंकाओं का समाधान हो जाने के बाद भी यह जरूरी नहीं की ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो जाए . इस के लिए मनुष्य को श्रवण और मनन के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त हुआ है उस पर निरंतन ध्यान और अभ्यास करते रहना चाहिए.
जिस प्रकार लम्बे समय  तक अभ्यास करके किसी भी सांसारिक  विद्या जैसे गीत संगीत आदि में निपुण हुआ जाता है उसी तरह इश्वर के प्रति अनुराग प्राप्ति भी समय मांगती है. इश्वर में मन लगाने के लिए पूजा, जाप ध्यान आदिका निरंतर लम्बे तक अभ्यास करना चाहिए ! अभ्यास से मन में असाधारण शक्ति आ जाती है. इस शक्ति के उदय होने के फलस्वरूप  इन्द्रियों को संयमित करने के लिए  के लिए अधिक प्रयास  नहीं पड़ता है !  निरंतर अभ्यास के पश्चात जब ध्यान अपनी उच्चतम अवस्था में पहुचता है तो जीव और ब्रह्म का भेद समाप्त हो जाता है. इसी अवस्था में पुनर्जन्म के कर्मो का फल समाप्त हो जाता है.

५ - साधना - साधना का अर्थ है नियमपूर्वक निर्धारित कर्म को नियमित समय पर करना . मन्त्र जाप , मुद्रा , आसन , प्राणायाम , अनुष्ठान इत्यादि  कर्म जब विशेष व्यवस्था और अनुशासन के अंतर्गत किये जाते है तो यह प्रक्रिया साधना कहलाती है.  साधना किये बिना शास्त्रों का सही अर्थ समझ नहीं आता है . उदाहरण के लिए दूध में मक्खन है, किन्तु मक्खन है ऐसा कहने मात्र से मक्खन प्राप्त नहीं  होता . मक्खन प्राप्त करने के लिए पहले दूध जमा कर  दही बनाना होता है.  इस दही को जब मथते है तभी  मक्खन निकलता है !. इसी प्रकार जब मन को एकत्र कर के अर्थात विचारो को स्थिर कर के मथानी रुपी तपस्या से मथने पर ईश्वर की कृपा होती है और कृपा से ही इश्वर के दर्शन संभव होते है ! इश्वर दर्शन की बात लोगो को समझाई नहीं जा सकती है इसके लिए सत्संग अर्थात गुरु का मार्गदर्शन  और स्वयं को तपस्या में निरंतर रत करना चाहिए !.
 
६ - प्रार्थना - अपनी आतंरिक इच्छाओ को इश्वर के सम्मुख  व्यक्त करना ही प्रार्थना है . यह इश्वर के साथ संवाद प्रारंभ करने का प्रथम साधन है. प्रार्थना को इश्वर तक पंहुचाने का माध्यम विश्वास और साधक की प्रबल इच्छा होती है. साधक का विश्वास अपने इष्ट पर जितना दृढ होता है और लक्ष्य प्राप्ति के लिए आकांक्षा जितनी तीव्र होती है प्रार्थना उतनी शीघ्र पूर्ण होती है. प्रार्थना का लक्ष्य केवल सांसारिक सुख की प्राप्ति नहीं होना चाहिए. जब प्रार्थना शांत मन से इश्वर प्राप्ति हेतु की जाती है तो मन में विवेक और वैराग्य की उत्पत्ति होती है. जब विवेक और वैराग्य की उत्पत्ति होती है तो कर्मों में शुद्धता आती है और ईश्वर के प्रति शुद्ध समर्पण की भावना का उदय होता है. 
 
५- समर्पण - जब पूर्ण एकाग्रता और विश्वास के साथ निरंतर हो रहे प्रत्येक कर्म के फल को इश्वर को समर्पित कर देते है तो ऐसा कर्म हमें बंधन में नहीं बांधता है ! कर्म के फलों का सच्चे ह्रदय से समर्पण इश्वर और गुरु पर पूर्ण विश्वास , लम्बे समय की साधना और अभ्यास के उपरान्त ही संभव हो पाता  है.

६- व्याकुलता - ईश्वर दर्शन का सर्वश्रेष्ठ उपाय है व्याकुलता !  जब तक ह्रदय में इश्वर प्राप्ति के लिए तीव्र उत्सुकता उत्पन्न नहीं होती तब तक समस्त सांसारिक आकर्षणों से मुक्ति नहीं होती. यह व्याकुलता ऐसी होनी चाहिए जिसमे सब कुछ विस्मृत हो जाये और केवल इश्वर ही एकमात्र लक्ष्य बन जाये. जैसे प्रेम के आवेग में प्रेमी और प्रेमिका को सांसारिक नियमों और संबंधों की विस्मृति हो जाती है , उन्हें केवल एक दूसरे का ध्यान ही रहता है . उसी प्रकार की व्याकुलता और प्रेम यदि इश्वर के प्रति हो जाये तो इश्वर की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है.

७ - शारीरिक संयम - साधना के लिए सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है - इन्द्रियों का निग्रह ! मन इन्द्रियों द्वारा सूचना ग्रहण कर इच्छाओं के साथ संयुक्त होकर व्यर्थ के कर्मों में उलझा देता है. इन्द्रियों के निग्रह से मन की बाहर भागने की  प्रवृत्ति पर अंकुश लगता है  और एक भाव पर स्थिर होने का गुण उत्पन्न होता है ! इन्द्रियों के निग्रह के लिए शारीरिक पवित्रता और मानसिक पवित्रता दोनों का ध्यान रखना पड़ता  है ! शरीर की शुद्धि के लिए यम , नियम , आसन ,प्राणायाम , प्रत्याहार  , धारणा , ध्यान , और समाधि  इन चरणों पर एक - एक करके आगे बढ़ना होता है ! यम का अर्थ होता है मन , वचन , और कर्म से लोभ , हिंसा इत्यादि न करना , आवश्यकता से अधिक संग्रह नही करना इत्यादि ! नियम के अंतर्गत  शरीर सम्बन्धी नियम जैसे नित्य स्नान , नियंत्रित और सात्विक आहार  इत्यादि आते है  ! प्रत्याहार प्रक्रिया में मन को अंतर्मुख करते है  तथा उसे बाहर  जाने से रोकते है ! धारणा  का अर्थ है  एक विषय पर ध्यान केन्द्रित करना.   इन सभी  का अभ्यास सम्पूर्ण जीवन करने की आवशयकता होती है !  ऐसा करने से मन समाधी में प्राप्त होने वाली उर्जा को ग्रहण करने और उसका समुचित उपयोग करने में समर्थ हो जाता है. 

८- मानसिक संयम - भावनाओं से प्रभावित हुए बिना मन का निरंतर निरीक्षण करना और विचारों को संयमित करना ही मानसिक संयम कहलाता है. वह विचार जो शुभ फल प्रदान नहीं करने वाले है उनके प्रति निस्संगता का भाव उत्पन्न करना और शुभ भावों के पहचान कर उनका समुचित उपयोग करने के लिए निरंतर प्रयास करते रहना पड़ता है. मन बार बार भावनाओं के आवेगों द्वारा  विचलित करने का प्रयास करता है जिन पर इच्छा शक्ति के प्रयोग से ही नियंत्रण संभव हो पाता है. इच्छा शक्ति को सबल करने के लिए और शुभ-अशुभ भावों के विवेक के लिए सद्ग्रंथों और गुरु का मार्गदर्शन समय-समय पर प्राप्त करते रहना नितांत आवश्यक होता है. 

 सारांश - 

आध्यात्मिक जीवन की उन्नति के लिए आध्यात्म में रूचि होना आवश्यक है.  आध्यात्मिक अभिरुचि होने के पश्चात उस मार्ग में आगे बढ़ने हेतु सुनियोजित नैतिक तैयारी  की आवश्यकता होती है.  जब मन, वचन और कर्म से ईश्वर को  पाने की चेष्टा करते है तभी इस प्रयास में सफलता मिल सकती है  ! इस प्रयास के दो रूप होते है। प्रथम प्रयास का रूप है सकारात्मक कर्मों का विकास और नकारात्मक कर्मो से स्वयं को दूर रखनाप्रयास का दूसरा स्वरुप है  यदि हम केवल पूजा पाठ आसन प्राणायाम करते रहे किन्तु दुष्कर्म से बचते नहीं है तो  हमारा मन शांत नहीं हो सकता है।  मन को शांत किये बिना हम आध्यात्म का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते है .  मन निरंतर अहम् का भाव आरोपित करता रहता है और जब तक अहम् भाव रहता है ज्ञान नहीं हो सकता. इसलिए ज्ञान प्राप्ति के लिए पहले चित्त की शुद्धि आवश्यक है . चित्त की शुद्धि के बाद मन इश्वर में आसानी से लग जाता है ! ज्ञान होने पर अहम् नियंत्रण में आ जाता है !  केवल वेद अथवा अन्य धर्म शास्त्र पढ़ कर ही ज्ञान  को प्राप्त नहीं किया जा सकता। धर्म ग्रंथों  से इश्वर के होने का बोध तो हो सकता है किन्तु समर्पण का भाव उत्पन्न नहीं होता।  समर्पण का भाव केवल शुद्ध ह्रदय के साथ ही संभव हो पाता है।जब तक हमारा पूर्ण समर्पण नहीं होता तब तक पाप पुण्य का ज्ञान , सुख-दुःख का ज्ञान, पवित्र- अपवित्र, अच्छे -बुरे का भेद  नष्ट नहीं होता है। समर्पण की भावना का उदय गुरु के दिशा निर्देशन में शुद्ध कर्मों द्वारा चित्त शुद्धि के उपरान्त  ही संभव होता है. 

 जब गुरु और शिष्य दोनों योग्य होते है तो अभूतपूर्व आध्यात्मिक शक्ति का उदय होता है. जैसे अच्छी जमीन में यदि अच्छा बीज बोया जाये तो फसल अच्छी होती है. इस मार्ग पर एक ऐसा गुरु जो लक्ष्य पर पहुच चुका है , परमात्मा से मिलन को व्याकुल आत्मा के लिए सहायक सिद्ध होता है. जिसने सत्य पर चिंता किया है और अनुभव किया है , वही गुरु आपको यथार्थ रूप में ईश्वर का अनुभव करा सकता है. जिस प्रकार अग्नि प्रज्ज्वलित करने के लिए अग्नि की ही आवश्यकता होती है उसी प्रकार जिनके भीतर आध्यात्म की चिंगारी है केवल वही दूसरों में आध्यात्म की आग प्रज्ज्वलित कर सकते है। इसी प्रकार शिष्य का भी सुयोग्य होना अत्यंत आवश्यक है. 


एक सुयोग्य शिष्य में ज्ञान प्राप्त करने की आकांक्षा , विश्वास और मेहनत करने का गुण होता है. गुरु के दिशा निर्देशन  में व्यक्ति को अंतर्मुखता को विकसित करने की, वाह्य जगत से ध्यान खीचने और अपने भीतर देखने की आदत विकसित करनी चाहिए. वाणी, मन और कामनाओं का संयम करना चाहिए. शिष्य को पुस्तकों और गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान के प्रकाश में अपनी कमियों से निरंतर संघर्ष करते रहना चाहिए.  अपनी कमियों को सुधारने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने से चित्त की शुद्धि होती है और सद्गुणों का विकास होता है. सद्गुण का अर्थ मनुष्य की श्रेष्ठ मनोवृत्ति है . जिसका विकास करने के लिए निरंतर प्रयत्न करना पड़ता है .क्योंकि  सद्गुण मनुष्य की जन्मजात प्रवृत्तियों  जैसे भूख, प्यास, क्रोध, भय तथा यौन  इच्छा आदि से बहुत भिन्न है. यह सभी प्रवृत्तियां जन्म से ही विद्यमान होती है  और इनमें बुद्धि  का कोई विशेष प्रयोग नहीं करना पड़ता है. इसके विपरीत सद्गुण का विकास  करने के लिए मनुष्य को निरंतर प्रयास और अभ्यास करना पड़ता है. जो ज्ञान और बुद्धि के द्वारा ही संभव है.  

 विवेक, वैराग्य  और इश्वर पर अनुराग यह तीनों महत्वपूर्ण इश्वर प्राप्ति के साधन है . समस्त शारीरिक और मानसिक क्रियाओ का फल यही तीन गुणों की प्राप्ति है. विवेक से वैराग्य की उत्पत्ति होती है और संसार से वैराग्य होने पर इश्वर के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है। प्रेम के सुदृढ़ होने पर शुद्ध भक्ति का उदय होता है। भक्ति की पराकाष्ठा होने पर इश्वर हमे स्वयं ही अपने नियमों और स्वरुप से परिचित करा देते है और समस्त  सन्देह दूर कर देते है . उनकी कृपा से सारा ज्ञान सहज हो जाता है ! जैसे जैसे ज्ञान की उच्चता को प्राप्त करते जाते है वैसे वैसे इन्द्रियों के सुख के प्रति आकर्षण कम होता जाता है और बौद्धिक कार्यो के प्रति रूझान बढ़ता जाता है. जहाँ बौद्धिकता का क्षेत्र समाप्त होता है वहा से अध्यात्म का क्षेत्र प्रारम्भ होता है और यहाँ अद्भुत आनंद की प्राप्ति होती है।

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