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कर्म साधन

मनुष्यों द्वारा जो कर्म किये जाते है उसके वेदों के द्वारा तीन विभाग किये गए है जो इस प्रकार है - नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म , काम्य कर्म । 

नित्य कर्म -
 
हमारा जीवन प्रकृति पर पूर्णतया आश्रित है. प्रकृति के अंतर्गत अन्य प्राणी जैसे सभी जीव जंतु , वृक्ष / पौधे , पञ्च महाभूत (अग्नि , जल , वायु, पृथ्वी और आकाश ) और अदृश्य जीव आत्माएं , देव आत्माएं एवं पितृ आ जाते है. मनुष्य अपनी सामर्थ्य से इनमे से किसी की उत्पत्ति नहीं कर सकता और ना ही इन सबके बिना उसका अस्तित्व संभव है. मनुष्य के हाथ में केवल प्रकृति का सही उपयोग और उसका संरक्षण है. उर्जा भी दिव्य प्रकृति का ही स्वरुप है. इस बात को उदाहरण से समझा जा सकता है. मनुष्य के पास अपनी ऊर्जा का स्थायी स्रोत आत्मा है जो की जीवन को परिभाषित करता है किन्तु शरीर की उर्जा को निरंतर बनाये रखने के लिए मनुष्य को भोजन और जल की आवश्यकता पड़ती है. धरती के बिना अन्न नहीं उपजाया सकता. अन्न उत्पादन में भी सभी पांच तत्वों का सहयोग होता है. जल से धरती को सिंचित कर बीज को बाहर आने के लिए उपयुक्त वातावरण दिया जाता है. सूर्य के रूप में अग्नि तत्व और वायु के सहयोग से बीज बहुगुणित हो कर एक कच्चे खाद्य पदार्थ का सृजन होता है. जब मनुष्य को भोजन की कच्ची सामग्री उपलब्ध होती है तब उसके निर्माण के लिए उसको पृथ्वी , अग्नि , वायु और जल तत्वों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती है. इनकी सहायता के बिना पका हुआ भोजन तैयार नहीं किया जा सकता. प्रकृति के स्वरुप को परिवर्तित कर अपनी सुविधाओं को बढाया अवश्य जा सकता है किन्तु उसके बिना काम नहीं किया जा सकता. जैसे अग्नि के लिए वर्तमान में गैस सिलिंडर का उपयोग होता है किन्तु गैस सिलिंडर के निर्माण की प्रक्रिया में भी प्रकृति का महत्वपूर्ण योगदान होता है. इसी प्रकार सांस जो मनुष्य लेता है उसमे पेड़ पौधों की भूमिका के बिना वायु की कल्पना भी असंभव है. इसी प्रकार गाय भैंस जैसे पशु दूध जैसा पौष्टिक भोज्य पदार्थ प्रदान कर जीवनी शक्ति को पुष्ट करते है. पक्षी बीजों को दूर दूर तक ले जाते है और हानिकारक कीड़ों का भक्षण कर प्रकृति को संतुलित करते है. इस प्रकार मानव जीवन से सम्बंधित जितनी भी आवश्यकताएं है उस में प्रकृति के सहयोग के बिना कोई भी कार्य करना संभव नही है.

संसार मे जीने के लिये मनुष्य प्रकृति की स्वाभाविक गति को अवरुद्ध करता है .  अवरोध की इस प्रक्रिया में कई सूक्ष्म प्राणियों की जीवन प्रणाली प्रभावित होती है.  जैसे वृक्षों को काटने से पक्षियों के बसेरे उजड़ जाते है और उनकी जीवन धारा प्रभावित हो जाती है.  मनुष्य स्वयं की जीवन धारा बनाये रखने के लिए पञ्च कर्म नित्य करता है . महाराज मनु के अनुसार सामान्य गृहस्थ से कम से कम पांच स्थानो पर जीव हत्या होती है - चूल्हे से , चक्की से, सफ़ाई से , ऊखली से और जल घडा से . इन पाँचों चीजों का नियमित उपयोग ही जीव हिंसा का कारण बन जाता है, यह नित्य हिंसा जाने अनजाने निरंतर होता रहता है. 

नित्य हो रहे पाप कर्मों को संतुलित करने के लिए  पाँच यज्ञों का विधान किया गया है  - ब्रह्म यज्ञ , देव यज्ञ , पित्र यज्ञ , भूत यज्ञ और अतिथि यज्ञ । ब्रह्म यज्ञ के अंतर्गत सत्संग , अच्छी पुस्तकों और वेदों का अध्ययन , श्रवण और मनन आता है जिंससे बुद्धि का शुद्धिकरण होता है, आते है । देव यज्ञ मे त्रिकाल संध्या अर्थात ईश्वर की आराधना , सेवा भजन इत्यादि कर्म आते है
पित्र कर्मों के अंतर्गत पूर्वजों का समय समय पर श्राद्ध तर्पण इत्यादि कर्म और माता पिता की सेवा आती है। भूत यज्ञ मे संसार के अन्य प्राणियों के लिए दान विशेषतः गाय, कौवा , कुत्ता और पक्षियों के लिए नियमित रूप से भोजन के एक अंश के दान का विधान है। अतिथि यज्ञ मे घर आए हुए मेहमान की भगवद भाव से सेवा सुश्रुषा का प्रावधान किया गया है।
 
यही कारण है कि नित्य कर्म करने से पुण्य नही होता है क्योकि यह प्रतिदिन हो रहे पापों को तटस्थ करता है . किन्तु यदि यह पञ्च महायज्ञ ना किये जाये तो इन पापों का परिहार नहीं होता है और पाप एकत्र होते जाते है. इसके फलस्वरूप मनुष्य अपनी वर्तमान स्थिति से नीचे गिर जाता है.
 
नैमित्तिक कर्म -
 
वह कर्म है जो विशेष अवसर आने पर किए जाते है । इसमे सोलह संस्कार ,  अनिष्ट ग्रहों की शान्ति, प्रायश्चित कर्म  आदि और विशेष अवसरों की पूजा सम्मिलित है।  

सोलह संस्कारों की  जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका है . संस्कार सोलह प्रकार के हैं ।  इन संस्कारों के नाम है-गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि।

हमारे हर कर्म को संयमित करने के पीछे वैज्ञानिक कारण है जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति है. इन समस्त प्रक्रियाओं का प्रयोजन उर्जा का शुद्धिकरण है. हर स्थिति में एक ही प्रक्रिया लाभदायक नहीं होती. जैसे भोजन ग्रहण करने योग्य बने इसके लिए उसको विभिन्न स्तरों से होकर गुजरना पड़ता है. इसी प्रकार आध्यात्मिक उर्जा को ग्रहण करने योग्य बनने के लिए विभिन्न प्रक्रियाओं का सहारा लेना पड़ता है. नैमित्तिक कर्मों में निहित सोलह संस्कारों का उद्देश्य यही है . इसी कारण जीवन से लेकर मृत्यु तक सभी महत्वपूर्ण स्तरों पर सकारात्मक उर्जा का विकास विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा किया जाता है जिससे कार्य को संपन्न होने में किसी बाधा का सामना ना करना पड़े और परिणाम भी शुभ हो. प्रथम तीन संस्कार अच्छी संतान के लिए है. जातकर्म  संसार में प्रवेश और नामकरण जान पहचान संसार से कराने हेतु किया जाने वाले विधान है. निष्क्रमण विधि में  संसार में योग्य होने के लिए अत्यधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है , जिसके लिए  सूर्य का दर्शन कराया जाता है.  अन्न शरीर और मन पर प्रभाव डालता है अतः अन्नप्राशन संस्कार के द्वारा शुद्ध भोजन की शुरुआत की जाती है . कर्ण भेदन पञ्च तत्वों के संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है . इसके बाद के तीन संस्कार विद्यारम्भ, उपनयन और वेदारम्भ जीवन में योग्यता चाहे वह सांसारिक हो या आध्यात्मिक, की प्राप्ति के लिए होते है. केशांत संस्कार नकारात्मक उर्जा को दूर करने का माध्यम होता है. विद्या समाप्ति के बाद और ब्रह्मचर्य के द्वारा स्वयं को  साधने के बाद संसार  में पुनः प्रवेश करने के लिए स्वागत रूप में संवर्तन संस्कार किया जाता है. तत्पश्चात सबसे महत्वपूर्ण संस्कार विवाह संस्कार होता है. 

जब रोग अथवा  वैवाहिक जीवन या कार्य व्यवसाय इत्यादि की समस्या  का समाधान ग्रहों के आधार पर किया जाता है तो यह ग्रह शांति कर्म भी नैमित्तिक कर्म  में आ जाते है. इसमें नवग्रहों से सम्बंधित वस्तुओं का दान , रत्न धारण और ग्रहों सम्बंधित मन्त्र इत्यादि आ जाते है. 

अतीत के कर्मो का प्रायश्चित करने से मन की शुद्धि शीघ्र होती है. संचित कर्म उस जल की तरह होते है जिस की गति अवरुद्ध होने के कारण उसमें सड़न पैदा हो जाती है और वातावरण को दूषित करती है . आसपास का वातावरण कितना भी अच्छा क्यों ना हो , रुके हुए पानी की दुर्गन्ध अच्छे वातावरण के आनंद को सीमित कर देते है. संचित कर्म भी रुके हुए पानी की तरह वर्तमान को सीमित कर देते है. प्रायश्चित कर्म वर्षा के जल की तरह होते है जो संचित कर्म को गति प्रदान कर के मन को शुभ कार्यो के लिए तैयार करते है. वेदों में कहे गए धार्मिक कृत्यों के द्वारा संचित कर्मों के अशुभ फलों का नाश किया जा सकता है. विशेष कथा, कीर्तन, तीर्थ, व्रत,  मन्त्र जाप  आदि जब पूर्ण निष्ठा के साथ विशेष कर्म को निर्धारित कर किया जाता है तो पाप कर्मो के फल से मुक्ति मिल जाती है. मनोभूमि का शोधन होने से भविष्य में होने वाले पापों की सम्भावना कम हो जाती है। प्रायश्चित करने के पश्चात पुनः पापकर्मों में लिप्त नहीं होना चाहिए, तभी प्रायश्चित कर्म सफल होता है.  
 
काम्य कर्म -
 
काम्य शब्द काम से बनता है .  काम से  ही  कामना शब्द का भी जन्म  है .  ऐसे कर्म जिन के होनें के  पीछे किसी न किसी तरह भोग - भाव छिपा हो उनको काम्य कर्म कहते हैं .
 
काम्य कर्म दो प्रकार के होते है -

1- सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु किये जाने वाले विधि  विधान 
२- आध्यात्मिक उन्नति के लिए किये जाने वाले  अनुष्ठान, व्रत, दान, मन्त्र ध्यान इत्यादि सब इसमें आ जाते है. 

 आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ ,  भय , आलस्य एवं अहँकार - यह तत्व है ​जिनके कारण  कर्म बंधन बनता  हैं ; जब इन में से किसी एक के सहारे कोई कर्म होता है तब उस कर्म को काम्य कर्म कहते हैं-  चाहे वह कर्म पूजा सम्बंधित ही क्यों न हो. अधिकांशतः काम्य कर्म  स्त्री ,  धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति और  रोग,  संकट आदि की निवृति के लिए काम्य कर्म किये जाते है | पुत्र अथवा वर्षा इत्यादि के लिए किया गया हवन भी इसके अंतर्गत आते है. 

नित्य , नैमित्तिक और काम्य कर्मों की अनिवार्यता  -

नित्य कर्म करना अत्यंत आवश्यक है क्योकि इनके नहीं करने से नित्य हो रहे पापों के कारण उर्जा का क्षय होता है जिसके कारण पतन की सम्भावना  बढ़ जाती है .  नैमित्तिक कर्म नहीं करने से ऊर्जा की हानि नहीं होती है. वरन इनके करने से उर्जा के  स्तर  में वृद्धि होती है . इनको करने से कार्य सम्पादन शीघ्रता  से होता है और परिणाम शुभ होने की सम्भावनाये बढ़ जाती है.  काम्य कर्म केवल इच्छा पूर्ती के लिए होते है. इनके करने से उस समय की इच्छापूर्ति अवश्य हो जाती है किन्तु दीर्घकालिक परिणाम उस कर्म के पीछे छुपी  भावना के आधार पर निर्धारित होते है. इस परिणाम पर मनुष्य का कोई नियंत्रण नहीं होता है . 

कर्म और ज्योतिष विज्ञान -

यह सत्य है कि भाग्य हमारे पूर्व जन्मों का ही परिणाम होता है, किन्तु वर्तमान जन्म के कर्मों में ही वह शक्ति होती है जो भाग्य के बंधन से मनुष्य को मुक्त कर सकती है. यही कारण है कि मनुष्य को अपने भाग्य का विधाता कहा गया है. मनुष्य यदि अपने कर्मो को संतुलित कर ले और एक विशेष दिशा प्रदान करे तो भविष्य को अपने अनुसार निर्मित कर सकता है. पाप रुपी कर्मों को हटाने में शुभ कर्म ही सहायता करते है. किन्तु इसके लिए शुभ कर्म कब और कैसे किये जाये , इसका ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है. 

शुभ कर्म यदि सुचारू रूप से नहीं किये जाते है तो उनका फल पूर्ण रूप से दृष्टिगोचर नहीं होता है. इसका उदाहरण नित्य प्रति दिन की जाने वाली पूजा है. हम सब किसी न किसी रूप में इश्वर की आराधना करते ही है, किन्तु अक्सर ऐसा होता है कि ना ही स्वयं में परिवर्तन होता है और ना  ही परिस्थितियों में. इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण है एकाग्रता में कमी. इसके कारण पूजा का इच्छानुसार फल नहीं मिलता है. भोजन कैसे भी ग्रहण किया जाये , कुछ न कुछ वह अवश्य करता है. उसी प्रकार इश्वर का नाम भी कुछ न कुछ फल अवश्य देता है. यहाँ पर प्रश्न यह उठता है कि उस पूजा का फल कहा जाता है?  जैसे कि नित्य कर्मों में कहा गया है कि मनुष्य पञ्च अपराध नित्य करता है. यदि हम निर्धारित पांच महायज्ञ उसके निर्धारित  स्वरुप नहीं करते है तो हमारी नित्य की पूजा , नित्य के पापों को निष्प्रभावी करने में चली जाती है.  यदि किसी कारणवश नित्य कर्मों में जाप की उर्जा खर्च नहीं होती है तो संचित कर्मो को काटने में उर्जा स्वतः ही चली जाती है. कई बार वर्तमान जन्म के विचार , सम्बन्ध  और कर्म भी नकारात्मक परिस्थितियों का निर्माण करते है.  हमारी नित्य की पूजा अथवा अन्य पुन्य कर्म की उर्जा परिस्थिति को नियंत्रित करने में चली जाती है . किन्तु हमें इसका ज्ञान नहीं होता है. परिस्थितियों और स्वयं में कोई परिवर्तन नहीं दिखता है. 

कर्मों का फल या तो भोग के द्वारा ही कटते है या विशेष प्रक्रियाओं के माध्यम से. भोग की प्रक्रिया कई बार लम्बी भी जाती है और दुःख या निराशा वर्तमान जन्म के कर्मों को भी नकारात्मक रूप में  प्रभावित कर यह प्रक्रिया और लम्बी कर देती है . यही  कारण है कि वेदों ने संचित कर्मो के पाप फलों के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए और भविष्य को सुखद बनाने के लिए वर्तमान जन्म के कर्मों के विभाग किये है. जिससे मनुष्य कम समय में ही पाप प्रभावों से मुक्त हो सके और आत्म ज्ञान प्राप्त करने योग्य बन सके. 

कर्म  के दोष के परिहार के लिए ज्योतिष विज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण शास्त्र कोई नहीं है. वह दुःख के कारणों को ही नहीं बताता बल्कि उसके निवारण के लिए विशिष्ट उपाय भी बताता है. इन विशिष्ट उपायों की सहायता से दोष का परिमार्जन शीघ्र हो जाता है. ज्योतिष विज्ञान के माध्यम से संचित और प्रारब्ध कर्मों की गणना कर के अवरोधक कर्मों को लक्ष्य बना कर विशेष दान , मन्त्र और पूजन विधियों द्वारा उनको प्रभावहीन करते है. जैसे रोग की पहचान यदि हो जाती है तो सही दवा और सही मात्रा के द्वारा रोग को शीघ्र नियंत्रित किया जा सकता है , उसी प्रकार जब दुःख के कारण रुपी कर्मों का ज्ञान ग्रहों के माध्यम से हो जाता है तो , उसका निवारण सहज हो जाता है. उदाहरण के लिए यदि किसी ने पिछले जन्म में स्त्री का अपमान किया हो तो वर्तमान जन्म में उसको स्त्री सुख नहीं मिलेगा. इसका पता कुंडली में शुक्र गृह की ख़राब स्थिति से बताया जायेगा.बार बार स्त्री द्वारा नकारात्मक व्यवहार के कारण मन में स्त्रियों के प्रति यदि नकारात्मक विचार रखे तो इस प्रतिक्रया के कारण कर्म और खराब हो जायेगा जिसका परिणाम हर तरह के सुख पर पड़ने लगेगा. इसका कारण यह है की शुक्र गृह के अंतर्गत स्त्री सुख के साथ साथ अन्य सुख भी आते है. यदि व्यक्ति जिसका शुक्र ख़राब है , स्त्री का हर परिस्थिति में सम्मान करना शुरू कर दे और शुक्र ग्रह से सम्बंधित मन्त्र इत्यादि का जाप करना प्रारम्भ कर दे तो पिछले जन्म के कर्म अपना प्रभाव करना कम कर देते है . इससे पिछले जन्म के खराब कर्म का प्रायश्चित विपरीत परिस्थितयों में धैर्य रख कर और विशेष उपाय जैसे गौ सेवा , बुजुर्ग स्त्रियों की सेवा कर के  हो जाता है.

समस्याओं का कारण जब तक सुनिश्चित नहीं हो मनुष्य लक्ष्यविहीन कर्म कर के और बंधन में फंसता चला जाता है. जैसे पति पत्नी यदि अपने सम्बंद्धों में तनाव के लिए एक दुसरे पर ही दोषारोपण करते रहते है. यद्यपि तनाव का कारण प्रारब्ध  के कर्म होते है. यदि पति और पत्नी यह समझ लेते है और स्वयं को नकारात्मक परिस्थितियों में शांत रखने का प्रयत्न करते है तो कर्म फल का रूपांतरण शुरू हो जाता है. इस परिस्थिति में मनुष्य अपने कर्मों का उत्तरदायित्व स्वयं पर लेता है. इसका फल यह होता है कि दुःख से व्यर्थ का संघर्ष बंद हो जाता है.  नकारात्मक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हो रहे नए नकारात्मक कर्मों की निर्माण प्रक्रिया पर विराम लगता है. इसके पश्चात प्रायश्चित कर्म, गृह शांति कर्म , नित्य कर्म और मंत्र जाप के द्वारा अशुभ कर्मो को प्रभाव को कम कर के परिस्थितियों में प्रत्यक्ष परिवर्तन लाया जाता है. इसके अलावा विशेष तिथियों में और विशेष कर्मों के प्रारम्भ में विशेष विधि विधान कर के सकारात्मक कर्मों की ऊर्जा की मात्रा  में वृद्धि करते रहते है. 

ग्रहों के माध्यम से कर्म की तीव्रता  का भी ज्ञान होता है . तीव्रता का ज्ञान होने से कर्म फल के रूपांतरण में लगने वाले समय और शुभ कर्मों की मात्रा के ज्ञान का अनुमान होता है , जिससे मनुष्य को विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य रखने का सामर्थ्य प्राप्त होता है. 

मनुष्य सभी कर्म के फलों को एक साथ नहीं भोगता है. विभिन्न कर्मों के भोग का समय भी अलग अलग होता है. हर कर्म के परिणाम को परिवर्तित करने के लिए अलग अलग शुभ  कर्मों की आवश्यकता होती है. इस समय का और उसके निवारण का निर्धारण ज्योतिष विज्ञान के माध्यम से हो जाता है. 

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