क्या शिष्य गुरु का चयन कर सकता है
चेतना के निम्न स्तर पर रहते हुए गुरु की पहचान करना संभव नहीं है। श्रेष्ठ की पहचान करने के लिए श्रेष्ठ होना पड़ता है। जैसे हीरे की सही पहचान अर्थात मूल्यांकन जौहरी ही कर सकता है उसी प्रकार शिष्य की पहचान गुरु तो कर सकता है किन्तु शिष्य अपनी जड़ता/सीमाओं के कारण गुरु की पहचान नहीं कर सकता। हमारे पूर्व जन्म के अशुद्ध संस्कार हमारी बुद्धि और मन की क्षमताओं को सीमित कर देते है। गुरु और ईश्वर दोनों मन और बुद्धि की सीमा से ऊपर होते है , इसलिए अपनी सीमाओं के साथ असीम की पहचान करना असंभव है। फिर यह कैसे जानें कि हमें साधना किस गुरु के मार्ग दर्शन में करना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर के पूर्व यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि क्या हम शिष्य बनने योग्य है ?
सीमाओं से परे जाने की क्षमता एक योग्य गुरु , योग्य शिष्य को ही दे सकता है। योग्य गुरु वह होता है जिसने सत्य को त्याग और तपस्या से प्राप्त किया, इच्छाओं को समाप्त कर लिया है, और सत्य उसके व्यवहार में हो। ऐसे ही गुरु में शिष्य को आत्म ज्ञान देने और इस राह में आने वाली कठिन परिस्थितियों को सहज करने की क्षमता होती है। ऐसा योग्य गुरु जब योग्य शिष्य को तैयार करता है तो आध्यात्मिक यात्रा सम्पूर्ण होने में कोई भी संदेह नहीं रह जाता।
शिष्य बनने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है - जिज्ञासा का होना। यह जिज्ञासा होनी चाहिए - संसार के दुःखों से मुक्ति की और आत्म उन्नति की। जिसके अंदर उन्नति की इच्छा नहीं हो स्वयं भगवान भी उसको मुक्ति नहीं प्रदान कर सकते। जब हमारे अंदर उत्कर्ष की इच्छा का उदय होता है तो गुरु मिलते है। जितनी प्रबल उत्कंठा मुक्ति की होगी , गुरु भी उतने ही श्रेष्ठ मिलते है। यदि हमारी इच्छा माया प्राप्ति की अधिक है तो गुरु भी मायावी ही मिलेंगे। इसलिए इच्छा का शुद्ध होना अत्यंत आवश्यक है। ऐसा नहीं है कि सांसारिक दुखों की निवृत्ति और सुखों की प्राप्ति से सम्बंधित बातें गुरु से नहीं करना चाहिए। गुरु के पास सभी बातें की जा सकती है किन्तु पूरे समय इन्ही सब बातों में नहीं उलझे रहना चाहिए। एक बार गुरु जब मार्ग दर्शन कर देते है तो मन की उलझनों में नहीं पड़कर पूरी तरह समर्पित हो कर आज्ञा अथवा दिशा निर्देशनों का हर परिस्थिति में पालन करना चाहिए। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मार्ग पर चलना आवश्यक होता है। यदि केवल बैठ कर ही मार्ग के विषय में सोचते रहेंगे तो कभी भी आगे नहीं बढ़ सकते।
एक अच्छे गुरु से जब भी समस्याओं की चर्चा होती है अथवा ज्ञान के विषय में वार्तालाप होता है तो एक ना एक बात ऐसी अवश्य होती है जो ह्रदय को स्पर्श कर जाती है , जिसके कारण मन शांत हो जाता है और आनंद की अनुभूति होती है , विश्वास को बल मिलता है और निर्देशों का पालन करने की इच्छा उत्पन्न होती है। यहाँ से शिष्य का कार्य आरम्भ हो जाता है। दिशा निर्देशों का पूरी तरह चिंतन मनन अवश्य करें किन्तु जब एक बार मार्ग पर चलने के लिए पग उठा दिया तो फिर व्यर्थ के विचारों और शंकाओं से ऊपर उठ कर केवल आज्ञा पालन पर ध्यान देना चाहिए। परिवार, परिस्थिति और मन की बाधा को, परम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रबल संकल्प शक्ति और साहस के द्वारा पार करना चाहिए।
जब कुछ नियमों के पालन से हमारे जीवन और मन में परिवर्तन होना आरम्भ हो जाते है तो अपने विश्वास और करने की क्षमता में वृद्धि करना चाहिए। इसके पश्चात गुरु पर किसी भी प्रकार के संदेह की आवश्यकता नहीं रहनी चाहिए। ज्ञान तो सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है किन्तु वह ज्ञान जो हमारे जीवन की दशा और दिशा परिवर्तित कर दे, वही हमारे काम का होता है। एक घट में उतना ही पानी आ सकता है , जितनी उसकी क्षमता होती है। शिष्य भी उतना ही ज्ञान ग्रहण कर सकता है जितनी उसके मन की क्षमता होती है। योग्यता बढ़ने पर गुरु स्वयं ही आवश्यक ज्ञान को शिष्य में समाहित कर देता है। समय से पूर्व और क्षमता से अधिक ज्ञान की मात्रा मन को और भ्रमित ही करती है इसलिए शिष्य को गुरु में पूर्ण विशवास रखते हुए आज्ञा पालन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। योग्य गुरु शिष्य की कमियों को पहचान कर उनको दूर करने के लिए विशेष आज्ञाएं देता है तो उसका पालन शिष्य को सद्गुणों जैसे धैर्य , संयम, समझ, ग्रहणशीलता की वृद्धि करता है। इन गुणों की सजगता के साथ देख भाल केवल आज्ञा पालन से ही संभव है। इसलिए आज्ञाकारिता योग्य शिष्य का दुसरा लक्षण है।
जब अन्य गुण विकसित होते है तो शिष्य की प्रवृत्ति वाह्य से अंतर्मुखी होने लगती है। जब इस बात का स्वयं को अनुभव होने लग जाये तो गुरु के प्रति समर्पण और लगन की सुरक्षा साधक को स्वयं करनी होती है। लोगों की बातों , उकसावों , चुनौतियों और सांसारिक इच्छाओं से स्वयं को कर्मठ हो कर बचाना होता है। इस स्थिति में प्रकृति से मिल रहे संकेतों और उपयोगी घटनाओं से मन को भटकने से बचाना चाहिए और विश्वास को बनाये रखना चाहिए । हर परिस्थिती में विश्वास करना ये योग्य शिष्य का तीसरा लक्षण है।
स्वयं का आत्मविश्लेषण समय समय पर करते रहना और अपनी त्रुटियों को न्यायसंगत सिद्ध नहीं कर के उनको दूर करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना यह योग्यता का चतुर्थ लक्षण होता है। गुरु के समक्ष हम अपनी कमियों को दूर करने के लिए जाते है ना कि गुरु अथवा अन्य के गुणों अथवा अवगुणों के विश्लेषण के लिए। किन्तु अधिकांशतः हम इसका उलटा करते है। अपनी प्रशंसा और दूसरों के अवगुण हमको अति प्रिय लगते है। जो प्रिय लगे वह सही हो यह आवश्यक नहीं। इसलिए गुरु के समक्ष बैठ कर जो ध्यान पूर्वक श्रवण करता है वह अपनी कमियों को दूर करने का मार्ग ढूंढ ही लेता है। अतः ध्यान से श्रवण करना यह अच्छे शिष्य होने का पंचम लक्षण होता है।
कर्मठता, योग्यता का छठा गुण होता है। तन और मन से पूरी तरह परिश्रम करना , कर्म से बचने के रास्ते नहीं ढूंढना, निरंतर प्रयत्नशील रहना यह एक ऐसा गुण है जो समस्त अवगुणों को सद्गुणों में परिवर्तित कर देता है। इसी गुण के कारण संसार को अज्ञानी लगने वाले व्यक्तियों को भी भगवद प्राप्ति हो जाती है।
यही वह गुण है जिन पर शिष्य को सदैव ध्यान देना होता है। जैसे जैसे यह गुण विकसित होते जाते है , गुरु के साथ शिष्य का सम्बन्ध घनिष्ठ और उन्नत होता जाता है।
किसी भी कारणवश यदि योग्य शिष्य का सम्बन्ध योग्य गुरु से नहीं बन पाता है तो प्रकृति स्वयं सहयोग करती है और प्रत्येक अवस्था में उनका सम्बन्ध स्थापित हो ही जाता है। रामकृष्ण परमहंस को स्वयं उनके गुरु तोतापुरी खोजते हुए आये थे। माँ काली से महाराज तोतापुरी को स्वप्न में सन्देश दिया कि मेरे भक्त को मुझसे मिलने की प्रबल इच्छा है , तुम जा कर उसको अपना शिष्य बना कर मुझसे मिलने योग्य बनाओ।
एक मूर्तिकार, मूर्ति निर्माण के लिए योग्य पत्थर को ढूंढ ही लेता है। इसलिए महत्वपूर्ण बिंदु है , स्वयं को योग्य शिष्य बनाना।
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