वैराग्य अर्थात् न ‘वैर’ हो न ‘राग’ हो। विषयों के साथ रहते हुए भी मन का उनसे लिप्त ना होना ही वैराग्य है.
वैराग्य निम्नलिखित कारणों से होता है –
* भय के कारण उत्पन्न वैराग्य – नरक के भय से संसार के विषयों से दूर हो जाने वाला वैराग्य
* विचार के कारण उत्पन्न वैराग्य – जो सत्संग और गुरु की कृपा के कारण उत्पन्न सत्य और असत्य के विवेक द्वारा संसार के विषयों से अलग होता है
* साधन के कारण उत्पन्न वैराग्य – जब मनुष्य साधन करते करते इश्वर के प्रेम में विह्वल हो जाता है और संसार के दुःख इश्वर प्राप्ति में बाधक लगने लगते है, तो इस विरक्ति को साधन द्वारा उत्पन्न वैराग्य कहते है.
* परमात्म तत्व के ज्ञान से उत्पन्न वैराग्य – जब साधक परमात्म तत्व में स्थित हो जाता है तो संसार स्वतः ही सारहीन प्रतीत होता है. मीरा, कबीर और श्री रामकृष्ण परमहंस का प्रबल वैराग्य इसका उदाहरण है .
अन्य संतों के अनुसार वैराग्य के प्रकार इस प्रकार है –
* शमशान वैराग्य – जो संसार से मिले दुःख के बाद वैराग्य उत्पन्न होता है
* संतोष वैराग्य – जब मन में यह भाव उत्पन्न हो जाये तो कि इस संसार से मुझे सब कुछ प्राप्त हो चूका है , अब और प्राप्ति की इच्छा ना हो
* ज्ञान वैराग्य – जब संसार की अस्थिरता को समझकर सजगता के साथ त्याग किया जाए
तीव्रता के आधार पर वैराग्य तीन प्रकार का होता है –
* मंद – जब मन पल में वैराग्य की और जाए किन्तु शीघ्रता के साथ फिर संसार में लिप्त हो जाये तो यह मंद वैराग्य होता है . अधिकांशतः संसारियों का वैराग्य मंद प्रकृति का होता है .
* मध्यम – इस स्थिति में धीरे धीरे वैराग्य उत्पन्न होता है और धीरे धीरे इश्वर से प्रेम होता है .
* तीव्र – संसार में बिलकुल ही मन ना लगे और इश्वर को पाने की व्याकुलता इतनी तीव्र हो कि संसार विषतुल्य लगे एवं बिना इश्वर जीवन व्यर्थ लगे . सब कुछ मन से त्याग कर इश्वर प्राप्ति के प्रयासों में अथक रूप से लग जाये तो यह वैराग्य की तीव्र स्थिति होती है.
परम तत्व के ज्ञान के बाद उत्पन्न वैराग्य ही दृढ होता है. अन्य सभी अवस्थाओं में वैराग्य की स्थिति अस्थायी रहती है अर्थात परिस्थिति और विचार के अनुसार वैराग्य की भावना परिवर्तित होती रहती है. भय और विचार की स्थिति में सूक्ष्म वासनाएं बनी ही रहती है। सूक्ष्म वासनाएं ज्ञान और भक्ति को धीरे धीरे ऐसे ही समाप्त कर देती है जैसे दीमक चीजों को ख़त्म कर देती है. इसलिए यह स्थिति अस्थायी होती है। यही कारण है कि जो ज्ञान वैराग्य के बिना होता है वह ज्यादा उपयोगी और अर्थपूर्ण नहीं रहता . भय से और विचार से वैराग्य का प्रारम्भ तो किया जा सकता है किन्तु उसमे स्थिरता इश्वर के प्रति प्रेम के उपरान्त ही आती है. इश्वर के प्रति जब अनन्य प्रेम उत्पन्न होता है तो अंतःकरण शुद्ध होने लगता है . जब अंतःकरण शुद्ध होने लगता है तो विचार और भय का कोई स्थान नहीं रह जाता है. इससे साधक के उत्साह और आशा में वृद्धि होती है. साधक उत्तरोत्तर आनंद की उपलब्धि करता हुआ वैराग्य की स्थिति दृढ करता हुआ परमानंद को प्राप्त होता है.
वैराग्य की उत्पत्ति विवेक से होती है. अभ्यास तो बिना विवेक के भी हो सकता है किन्तु बिना विवेक के वैराग्य नहीं हो सकता है. वैराग्य जितना अधिक होता है उतना ही शीघ्र इश्वर के निकट पहुँचते है. वैराग्य के बिना आत्मा का उद्धार असंभव है क्योंकि वैराग्य ईश्वर प्राप्ति का एक प्रमुख सोपान है.