यद्यपि आध्यात्मिक ऊर्जा के संचय के लिए गुरु और शिष्य दोनों का प्रयास आवश्यक है किन्तु उत्तरदायित्व शिष्य का ही अधिक होता है। गुरु का कार्य आध्यात्मिक ऊर्जा के प्रवाह में बाधक तत्वों की पहचान करना और उनका समाधान निकालना होता है। इसके साथ केवल गुरु ही प्रचंड आध्यात्मिक ऊर्जा को शिष्य के धारण करने योग्य बना सकता है। किन्तु यह कार्य तभी संभव हो सकता है जब शिष्य के अंदर जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए गुरु के द्वारा बताये हुए मार्ग पर चलने के लिए तन और मन से दृढ संकल्पित हो।
दृढ संकल्प
दृढ संकल्प की आवश्यकता इसलिए होती है जिससे मन की संशयात्मक प्रवृत्ति, चंचलता और अधीरता हमको अपने पथ से विचलित ना कर सके। जो शिष्य मन की मनमानी के समक्ष हार नहीं मानता है और निरंतर गुरु के दिशा निर्देशों का अभ्यास हर परिस्थिति में करता रहता है , वही अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को समझने और ईश्वर से मिलने का अधिकारी बनता है। जैसे भोजन किसी भी प्रकार से, कहीं से भी प्राप्त किया जा सकता है किन्तु उसको खाना स्वयं पड़ता है. भोजन के पाचन की प्रक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि व्यक्ति की पाचन क्षमता कितनी अच्छी है. गरिष्ठ भोजन दुर्बल पाचन क्षमता वाले व्यक्ति को लाभ के स्थान पर हानि पंहुचा सकती है। अच्छी पाचन क्षमता के लिए व्यक्ति को स्वयं ही व्यायाम और अन्य भोजन सम्बन्धी नियमों का पालन करना पड़ता है। यह काम कोई अन्य व्यक्ति नहीं कर सकता। वैद्य के द्वारा दी गयी औषधियों का उपयोग और उसके द्वारा बताये गए अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों का पालन रोगी को स्वयं ही करना पड़ता है, तभी रोग का उपचार संभव होता है। उसी प्रकार गुरु द्वारा बताये गए उपायों और अन्य आध्यात्मिक नियमों का पालन शिष्य का उत्तरदायित्व होता है। जितनी लगन और विश्वास से इन नियमों का पालन किया जाता है आध्यात्मिक ऊर्जा उतना ही अधिक लाभ देती है।
आध्यात्मिक ऊर्जा के संचय और संवर्धन के लिए समस्त नियमों को दो मुख्य श्रेणियों में बांटा जा सकता है। यह श्रेणियाँ इस प्रकार है –
-
करणीय कर्म
-
निषिद्ध कर्म
करणीय कर्म वह होते है जिनका पालन करना हर परिस्थिति में अनिवार्य है। यह कर्म है – आसन, प्राणायाम, सेवा, ध्यान, उपासना, स्वाध्याय, सत्संग, मन्त्र जाप, आहार शुद्धि, आत्म निरिक्षण, मौन, ब्रह्मचर्य इत्यादि का पालन यह सब करणीय कर्मों में आते है। करणीय कर्मों की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि साधक कितनी चैतन्यता , संयम , धैर्य, विश्वास और नियमितता के साथ इन कर्मों का सम्पादन करता है। यहाँ पर यह स्मरण रखना आवश्यक कि किसी एक की भी कमी आध्यात्मिक ऊर्जा की मात्रा और गुणवत्ता प्रभावित कर सकती है।
निषिद्ध कर्म
निषिद्ध कर्म वह होते है जो किसी भी परिस्थिति में अनुशंसित नहीं होते है। यह कर्म है – हिंसा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मिथ्याचार, चोरी, शराब आदि मादक द्रव्य, निंदा, झूठ इत्यादि कर्मों से विरत रहना इत्यादि। अपने दोषों को समझकर उनको दुबारा ना दोहराने का संकल्प अर्थात उसको निषिद्ध करना यह साधक का उत्तरदायित्व होता है। साधक के अधिकतर दोष होते है – भावनाओं और परिस्थितियों में बह जाना , दूसरों के विषय में विश्लेषण करते रहना , वाद विवाद में पड़ना, अनावश्यक सोच विचार करते रहना ,अपनी समस्याओं के लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहराना और भगवान के अलावा अन्य लोगों से आशाओं और अपेक्षाओं के भंवर में पड़कर अपने समय और ऊर्जा की हानि करना इत्यादि।
करणीय कर्म
करणीय कर्मों को कर के साधक आध्यात्मिक ऊर्जा का आह्वाहन करता है। इन कर्मों के निरंतर करते रहने से ऊर्जा की मात्रा और गुणवत्ता में सुधार होता है और हमारे ग्रहण करने योग्य बन कर संचित कर्मों को क्रमशः समाप्त करती जाती है। जब साधक निषिद्ध कर्मों का त्याग करता है तो ऊर्जा नष्ट नहीं होती है वरन उसका संचय होता है । जिस प्रकार धन कमाना जितना महत्वपूर्ण है, संचय करने के लिए उसका अपव्यय रोकना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार यदि साधना में ऊर्जा के अपव्यय को नहीं रोका जाये तो करणीय कर्म अधिक लाभ नहीं दे पाते है।
साधना में शीघ्र प्रगति करने के लिए यह आवश्यक ही नहीं , अनिवार्य भी है कि उन्नति कारक कर्मों को लगन से करने के साथ साथ , ऊर्जा की हानि करने वाले कर्मों से स्वयं को दूर रखे। गुरु पर विश्वास , ईश्वर विषयक ज्ञान और दृढ संकल्प , आध्यात्मिक ऊर्जा के संरक्षण और संवर्धन के लिए अत्यंत आवश्यक है। गुरु स्वतः ही समय समय पर निर्देशन करते रहते है आवश्यकता केवल शिष्य को तन और मन से आज्ञा पालन करने और अपना उत्तरदायित्व निभाने की ।