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ग्रहणशीलता का अर्थ

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जब इश्वर की चेतना अर्थात शक्ति कण कण में विद्यमान है तो क्या कारण है कि हम उस ऊर्जा को ग्रहण नहीं कर पाते है. इसका मुख्य कारण है जाग्रति का अभाव. इस अभाव के कारण हम ऊर्जा के परम स्रोत को अपने अन्दर समाहित नहीं कर पाते है.

जाग्रति का अभाव अर्थात अज्ञानता का कारण है हमारे ज्ञान, कर्म और भक्ति के मध्य सही समन्वय का ना होना. जब इन तीनों के मध्य समन्वय नहीं होता है तो हमारी अशुद्धियाँ बढती जाती है. कभी ज्ञान के अधूरेपन के कारण कर्म सही नहीं होता और कभी भक्ति की कमी के कारण ज्ञान और कर्म दूषित हो जाते है. इस प्रकार यह चक्र निरंतर चलता रहता है और आत्मा के ऊपर अज्ञान का आवरण गहरा होता जाता है. हमारी अशुद्धियाँ ही हमें परम सत्य से दूर रखती है . एक सम्पूर्ण गुरु इन अशुद्धियों को भली प्रकार से समझता है और शिष्य को उनका विभिन्न माध्यमों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करा कर उनको दूर करने में शिष्य की पूर्ण सहायता करता है. अशुद्धियों को दूर करने के लिये शिष्य का उत्तरदायित्त्व निरंतर ग्रहणशील हो कर चलते रहने का है. आध्यात्मिक ज्ञान केवल शब्दों तक ही सीमित नहीं रहता . जब तक ज्ञान को जीवन में उतारा ना जाये तब तक वह पुर्णतः समझ नहीं आता. अपनी प्रारंभिक बुद्धि से हमको जितना भी समझ आता है वह हमको धैर्य प्रदान करता है और हमारे कर्म को सही दिशा देकर भक्ति को दृढ करती है.

ग्रहणशील होने का अर्थ है – अपनी मान्यताओं , विचारधाराओ और स्वयं के सही एवं श्रेष्ठ होने की भावना को अपने ऊपर प्रभावी नहीं होने देना और गुरु द्वारा दिखाए गए मार्ग पर शरीर, मन और आत्मा की सम्पूर्ण शक्ति लगाकर निरंतर चलने का प्रयास करना. जब शिष्य अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ प्रयास करता है तो पूर्व जन्म के नकारात्मक कर्मों की उर्जा का रूपांतरण होने लगता है. इस रूपांतरण के कारण बुद्धि पर पड़ा हुआ आवरण हटने लगता है और जीवन के प्रति नया दृष्टिकोण एवं नयी सामर्थ्य का जन्म होता है. रूपांतरण की यह प्रक्रिया सहज नहीं होती है. इसमें कई बाधाओं और पीडाओं का सामना करना पड़ता है जिससे पार केवल गुरु पर विश्वास और कर्मठ हो कर कर्म करने से जाया जा सकता है.
जब शिष्य अपने प्रयासों और सीमाओं से थक जाता है तो गुरु अपने ज्ञान, कर्म और भक्ति की शक्ति से शिष्य को संभालता है और सीमा से परे ले जाता है.

 

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