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अध्यात्मिक उर्जा का क्षय कैसे हो जाता है

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मनुष्य के साथ सबसे बड़ी समस्या ही यह है की वह उर्जा के नियमो से अवगत नहीं है. अध्यात्मिक शक्ति अर्थात  उर्जा का, मंत्र इत्यादि क्रियाओं से आहवाहन तो हो सकता है किन्तु दिव्य उर्जा को संचित कर उसका उचित समय पर उचित प्रयोग करना नही आता है.

इसके अलावा मनुष्य को इस बात का भी ज्ञान नहीं होता है ​कि ​ किस प्रकार ​​छो​टे ​​छो​टे नकारात्मक कर्मों द्वारा अपनी ​कठिनता से प्राप्त दिव्य उर्जा का नु​कसान ​ कर देता है.

उर्जा के क्षय ​का ​ सबसे प्रमुख कारण मन के सभी ​छो​टे और बड़े नकारात्मक विचार होते है. मन की किसी भी वस्तु , व्यक्ति अथवा परिस्थिति को लेकर सबसे पहली ​जो​ प्रतिक्रिया हो​ती ​ है वह है – विचार. विचारो की प्रवृत्ति या तो भूतकाल की​ ओर ​ रहती है या भविष्य की ​ओर ​ रहती है. अधिकंशतः विचार भूतकाल मे हो चुकी घटना मे संलग्न व्यक्ति अथवा वस्तुओं से हमारा भावनात्मक लगाव होने के कारण चलते रहते है. ऐसे विचारो मे अधिकांशतः विचार तुल​​नात्मक , निषेधात्मक और ​अपेक्षात्मक​ हो​ते ​ है जो ​कि ​ मानव मन को असहज बना देते है. भविष्य की आवश्यकता से अधिक चिन्ता भी मन को असंतुलित कर देती है.

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ऊर्जा का निरंतर प्रवाह

भूतकाल और भविष्य काल में रहने से हो रहे शारीरिक और मानसिक  असंतुलन का कारण यह है कि वह शक्ति जो भविष्य का उचित ​निर्माण कर​ सकती ​ है और भूतकाल की असहज परिस्थितियों को पुनः उत्पन्न नहीं होने देती वर्तमान काल मे विद्यमान होती है . किन्तु मनुष्य कभी भी वर्तमान मे सहज हो कर नहीं रहता. वर्तमान का सही उपयोग ना कर पाने के कारण भविष्य ​की​ नयी शुभ सम्भावनाये स्वरूप नहीं ले पाती है. भूतकाल का कोई अस्तित्व नहीं होता है, किन्तु नकारात्मक विचारों द्वारा ​बार बार पोषित होने के कारण ​वह​ भविष्य ​में​ उसी प्रकार के व्यक्तियों से सम्बन्ध अथवा परिस्थित्यों के ​​​​​​निर्माण की सम्भावना को सबल बनाते है.

विचार अध्यात्मिक उर्जा को ​गति​ प्रदान करते है.           सका​रा​त्मक उर्जा समय रहते सही दिशा देने पर उत्तम आतंरिक और वाह्य परिस्थितियों का ​​निर्माण कर ​सकती​ है. किन्तु​ यदि​ ​अवांछनीय विचारो पर नियन्त्रण नहीं रखा जाये तो उर्जा का अनुकूल परिस्थितियों के ​​निर्माण​ ​के लिये उपयुक्त मा​त्रा ​ मे संचयन नहीं हो पाता है और सब कु​छ यथावत नकारात्मक रूप मे चलता रहता है.

​​जैसे कि हम सभी ​जा​नते है कि उर्जा का हस्तान्तरण पाँच विधियों के द्वारा होता है – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध उर्जा को एक स्थान से दूसरे स्थान अथवा व्यक्ति तक पहु​चा​ने के वाहक होते है. कटु , तीखे, क्रोधी, निन्दक और व्यंगात्मक शब्दों का यदि प्रयोग किया जाये तो उर्जा की हानि होती है. यही कारण है कि साधनकाल मे तथा अन्य समय मे भी किसी भी प्रकार से प्रेरित होकर अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये. किसी को अशीर्वाद दिया जाये अथवा श्राप ; दोनों ही स्थिति मे स्वयम की तपस्या से अर्जित की गयी उर्जा शब्दों के माध्यम से दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित हो जाती है और उस समय की गयी इच्छा के अनुरूप दुसरे व्यक्ति को फल देती है .
तामसिक भोजन, मांस, मदिरा, धूम्रपान इत्यादी का उपयोग भी अध्यात्मिक शक्ति के ​ह्रास​ का प्रमुख ​कारण है.​ऐसा भोजन ​जब तक सम्पूर्णतः शरीर को अपने प्रभाव से मुक्त नहीं कर देता उर्जा स्तर को प्रभवित करता रहता है. ​ता​मसिक भोजन के ​उपरान्त उर्जा को व्यवस्थित होने मे 2-4 दिन सााधरणतयः ​ लग जाते है.

इसी प्रकार जब नकारात्मक विचार​धारा ​​ के साथ जब भोजन बनाया जाता है तो स्पर्श के साथ विचारों की उर्जा पदार्थों मे प्रवेश कर उसकी सात्विक शक्ति को कम कर देते है. नकारात्मक व्यक्तियों के साथ हाथ मिलाने , उनके द्वारा दिए हुए वस्त्र पहनना अथवा उनके वस्त्र पहनने  से भी उनकी ऊर्जा दूसरे व्यक्ति के अंदर प्रवेश कर अस्थिरता , बेचैनी और क्रोध जैसे अन्य विकार उत्पन्न  करते है।  सड़न इत्यादि से पैदा हुई और अन्य अप्रिय लग्ने वाली गंध वायु के माध्यम से नासिका से होती हुई सीधे सूक्ष्म​ शरीर को प्रभवित करती है और उर्जा भौतिक एवम सूक्ष्म शरीर के मध्य उर्जा मे असंतुलन पैदा करती है.

इन्ही सब ​कारणों से अध्यात्म​​ मे मन की शुद्धता , भोजन , वाणी और स्पर्श इत्यादि की सावधानी पर बहुत अधिक बल दिया गया है. य​दि ​ इन माध्यमो का सही उपयोग किया ​जाता​ है तो सकारात्मक उर्जा की ​गति ​अंदर की ​ओर होती है जि​ससे ​ उसका संचय होकर मात्रा मे वृद्धी होती है. इन माध्य​मों ​ का ​​ दुरूपयोग ​करने पर उर्जा की ​प्रवृत्ति ​ वाह्य और अधोमुखी हो जाती है जिससे संचित उर्जा का भी क्षय हो जाता है. य​ह ​ वाह्य ​प्रवृत्ति और अधोगामी ​गति तब तक रहती है जब तक सही प्रयासो और संकल्प के​ ​द्वारा उर्जा का मार्ग परिवर्तित ना किया जाये.

” नकारात्मक व्यक्ति, वस्तुओं अथवा परिस्थितियों से स्वयं को तब तक अलग रखना चाहिये जब तक उर्जा को स्थायित्व प्रदान नहीं हो जाता अर्थात ​अनचाहे​ हस्तानन्तरण पर नियन्त्रण नहीं आ जाता “

 

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