इश्वर निर्गुण , अनंत और सर्वव्यापी है , स्थान और समय से परे है किन्तु हमारा मन इन्द्रियों द्वारा सीमित होने के कारण इश्वर की सर्वव्यापकता और अनंतता को स्वीकार नहीं कर पाता है। इस अस्वीकार की स्थिति के कारण निर्गुण स्वरुप मन को स्थिर नहीं कर पाता है . मन की क्रमिक उन्नति और स्थिरता के लिए इश्वर के सगुण स्वरुप की अराधना का विधान किया गया है ।
जब भी हम कोई कर्म करते है तो अधिकांशतः उसके पीछे कोई न कोई इच्छा अवश्य होती है . उस इच्छा पूर्ती के लिए उपयुक्त साधन की आवश्यकता होती है . साधन की सामर्थ्यता और अनुकूलता व्यक्ति की सामर्थ्य को बढ़ा देती है। इस बात को इस उदाहरण से समझे जैसे किसी भी यात्रा की सम्पूर्णता में लगने वाला समय प्रयोग किये जाने वाले साधन पर निर्भर करता है। यात्रा की सम्पूर्णता के लिये दूसरा पक्ष यह है की व्यक्ति / यात्री की सामर्थ्य भी अच्छी होनी चाहिए । एक ही यात्रा अलग अलग व्यक्तियों के लिए अलग अलग समय पर पूरी होती है . व्यक्ति शारीरिक रूप से कितना भी सामर्थ्यवान हो यदि वह यात्रा पैदल अथवा साईकिल से करे तो यात्रा का समय अधिक लगेगा . इसमें यदि साधक की सामर्थ्य कम हो तो यात्रा का समय और बढ़ जायेगा क्योंकि विश्राम की आवश्यकता अधिक पड़ेगी. यही यात्रा यदि कार अथवा हवाई जहाज से की जाये तो यात्रा का समय और भी कम किया जा सकता है, किन्तु इस अवस्था में आर्थिक सम्पन्नता की आवश्यकता पड़ती है . जैसे व्यवहार जगत में जीवन यापन के लिए नियमों की आवश्यकता होती है और हर नियम की अपनी कुछ सीमायें होती है , उसी प्रकार आध्यात्मिक जगत के कुछ नियम होते है और उन नियमों की अपनी सीमाए होती है .
साधारणतः सभी व्यक्ति यह समझते है कि हम किसी भी स्वरुप की अराधना कर सकते है किन्तु यहाँ पर यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि इश्वर ने विभिन्न स्वरुप क्यों धारण किये ? यदि रूप धारण ही करना था तो एक स्वरुप से भी काम चल सकता था .इश्वर के विभिन्न रूप उस सर्वशक्तिमान इश्वर के विभिन्न गुणों और कार्यों का निर्धारण करते है . जैसे विद्या की प्राप्ति के लिए सरस्वती जी , विघ्नों को दूर करने के लिए गणपति जी और धन की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी जी की अराधना की जाती है। क्योंकि उस विशेष स्वरुप में एक विशेष गुण के ऊर्जा की मात्रा अधिक होती है जिससे वह विशेष इच्छा पूर्ती शीघ्र होती है। किन्तु इस का अर्थ यह नहीं होता कि सभी स्वरूपों की अराधना एक साथ कर ली जाये। यदि किसी व्यक्ति के पास दस शयनकक्ष हो किन्तु वह सभी शयनकक्षों में एक साथ नहीं सो सकता। इसी प्रकार सभी स्वरूपों की अराधना एक साथ नहीं की जा सकती। इष्ट देव इश्वर के उसी स्वरुप को बनाया जाता है जो जीव की ऊर्जा स्तर के अनुकूल हो और उसके सबसे निकट हो। इष्ट देवता ही कुण्डलिनी शक्ति अथवा आत्म ज्ञान के जागरण के लिए प्रथम द्वार होते है . यदि प्रथम द्वार ही बंद हो तो दिव्य चेतना उर्जा का प्रवाह सही नहीं हो पाता है .
हिन्दू पद्धति में मुख्यतः पांच इष्ट देवता सांसारिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए बताये गए है – सूर्य देव , शक्ति आराधना (दुर्गा , लक्ष्मी , सरस्वती) , भगवान् विष्णु और उनके अन्य अवतार और भगवान् शिव . दक्षिण भारत में कार्तिकेय भगवान् को इष्ट देवता का स्थान दिया गया है . निम्नलिखित देव ग्रहों के अधिपति है – t
• सूर्य —विष्णु , रमा, शिव
• चन्द्र —कृष्ण, शिवा, पार्वती
• मंगल – हनुमान , श्री नरसिम्हा, दुर्गा
• बुध — विष्णु
• गुरु — विष्णु, श्री वामन, दत्तात्रेय
• शुक्र – महा लक्ष्मी, परशुराम , माँ गौरी
• शनि – हनुमान, कूर्मा, शिव, विष्णु
• राहु – माँ दुर्गा
• केतु – गणेश , मतस्य
ग्रहों के माध्यम से व्यक्ति की उर्जा का स्तर और अनुकूलता का निर्धारण कर इष्ट का निर्धारण किया जाता है। ग्रह अत्यंत महत्त्वपूर्ण सीढ़ी है उस अनन्त को पाने के लिए । एक जागृत और सिद्ध गुरु शिष्य के शारीरिक , मानसिक और आध्यात्मिक स्तर को ग्रहों के माध्यम से ज्ञात कर विभिन्न स्तरों को संतुलन करने हेतु उपयुक्त इष्ट देव और मंत्र का चुनाव करता है। जब सही इष्ट की आराधना और सही मंत्र का निरंतर जाप किया जाता है तो शरीर , मन और आत्मा के मध्य नकारात्मक कर्मों की बाधाएं हटने लगती है और परम चेतना से संपर्क स्थापित होने लगता है।
जैसे जैसे हम साधना में आगे बढ़ते है आवश्यकतानुसार मंत्रो और ईश्वर के अन्य स्वरूपों का ध्यान और आराधना कर सगुन से निर्गुण उपासना की और बढ़ जाते है , किन्तु इस यात्रा का प्रारम्भ सही इष्ट देवता के निर्धारण से ही होता है।